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अंगों के होते हुए भी कभी हृदय नहीं रहता और बाह्य अंगों अनात्मवादके अभाव में भी संस्कृति का हृदय संभव है। इस दृष्टि को सामने रखकर विचार करने वाला कोई भी व्यक्ति भली- आज की तरह बहुत पुराने समय में भी ऐसे विचारक भाँति समझ सकेगा कि जैन-संस्कृति का हृदय, जिसका वर्णन लोग थे जो वर्तमान जीवन में प्राप्त होनेवाले सुख के उस मैं यहाँ करने जा रहा है वह केवल जैन समाजजात और जैन पार किसी अन्य सुख की कल्पना से न तो प्रेरित होते थे और कहलाने वाले व्यक्तियों में ही संभव है ऐसी कोई बात नहीं न उसके साधनों की खोज में समय बिताना ठीक समझते थे। है। सामान्य लोग जिन्हें जैन समझते हैं, या जो अपने को जैन उनका ध्येय वर्तमान जीवन का सुख-भोग ही था और वे कहते हैं, उनमें अगर आन्तरिक योग्यता न हो तो वह हृदय इसी ध्येय की पूर्ति के लिये सब साधन जुटाते थे। वे समझते संभव नहीं और जैन नहीं कहलानेवाले व्यक्तियों में भी थे कि हम जो कुछ हैं वह इसी जन्म तक हैं और मत्यु के बाद अगर वास्तविक योग्यता हो तो वह हृदय संभव है। इस हम फिर जन्म ले नहीं सकते। बहुत हुआ तो हमारे पुनर्जन्म तरह जब संस्कृति का वाह्य रूप समाज तक ही सीमित का अर्थ हमारी सन्तति का चालू रहना है। अतएव हम जो होने के कारण अन्य समाज में सुलभ नहीं होता तब संस्कृति अच्छा करेंगे उसका फल इस जन्म के बाद भोगने के वास्ते का हृदय उस समाज के अनुयायिओं की तरह इतर समाज हमें उत्पन्न होना नहीं है। हमारे किये का फल हमारी के अनुयायिओं में भी संभव होता है। सच तो यह है सन्तान या हमारा समाज भोग सकता है। इसे पुनर्जन्म कहना कि संस्कृति का हदय या उसकी आत्मा इतनी व्यापक और हो तो हमें कोई आपत्ति नहीं । ऐसा विचार करने वाले स्वतन्त्र होती है कि उसे देश, काल, जात-पात, भाषा और वर्ग को हमारे प्राचीनतम शास्त्रों में भी अनात्मवादी या रीति-रस्म आदि न तो सीमित कर सकते हैं और न अपने नास्तिक कहा गया है। वही वर्ग कभी आगे जाकर चार्वाक साथ बाँध सकते हैं।
कहलाने लगा। इस वर्ग की दृष्टि में साध्य-पुरुषार्थ एक मात्र जैन-संस्कृति का हृदय-निवर्तक धर्म
काम अर्थात् सुख-भोग ही है। उसके साधन रूप से वह वर्ग ___ अब प्रश्न यह है कि जैन-संस्कृति का हृदय क्या चीज़
धर्म की कल्पना नहीं करता या धर्म नाम से तरह-तरह के है ? इसका संक्षिप्त जवाब तो यही है कि निवर्तक धर्म जैन
विधिविधानों पर विचार नहीं करता। अतएव इस वर्ग को एक संस्कृति की आत्मा है। जो धर्म निवृत्ति कराने वाला अर्थात्
मात्र काम-पुरुषार्थी या बहुत हुआ तो काम और अर्थ उभयपुनर्जन्म के चक्र का नाश कराने वाला हो या उस निवृत्ति के
पुरुषार्थी कह सकते हैं। साधन रूप से जिस धर्म का आविर्भाव, विकास और प्रचार हुआ हो वह निवर्तक धर्म कहलाता है। इसका असली अर्थ प्रवर्तक-धर्मसमझने के लिए हमें प्राचीन किन्तु समकालीन इतर धर्म
दूसरा विचारक वर्ग शारीरिक जीवनगत सुख को साध्य स्वरूपों के बारे में थोड़ा-सा विचार करना होगा ।
तो मानता है पर वह मानता है कि जैसा मौजूदा जन्म में धर्मों का वर्गीकरण
सुख सम्भव है वैसे ही प्राणी मरकर फिर पुनर्जन्म ग्रहण .इस समय जितने भी धर्म दुनिया में जीवित हैं या करता है और इस तरह जन्म-जन्मान्तर में शारीरिक-मानजिनका थोड़ा-बहुत इतिहास मिलता है, उन सबके आन्तरिक सिक सुखों के प्रकर्ष-अपकर्ष की शृंखला चल रही है। जैसे स्वरूप का अगर वर्गीकरण किया जाय तो वह मुख्यतया तीन इस जन्म में वैसे ही जन्मान्तर में भी हमें सुखी होना हो, या भागों में विभाजित होता है :--
अधिक सूख पाना हो, तो इसके वास्ते हमें धर्मानष्ठान भी १-पहला वह है, जो मौजूदा जन्म का ही विचार करना होगा। अर्थोपार्जन आदि साधन वर्तमान जन्म में उपकरता है।
कारक भले ही हो पर जन्मान्तर के उच्च और उच्चतर सुख २-दूसरा वह है जो मौजूदा जन्म के अलावा जन्मांतर के लिये हमें धर्मानुष्ठान अवश्य करना होगा। ऐसी विचारका भी विचार करता है।
सरणी वाले लोग तरह-तरह के धर्मानुष्ठान करते थे और ३-तीसरा वह है जो जन्म-जन्मान्तर के उपरान्त उसके द्वारा परलोक तथा लोकान्तर के उच्च सुख पाने की
उसके नाश का या उच्छेद का भी विचार करता है। इच्छा भी रखते थे। यह वर्ग आत्मवादी और पुनर्जन्मवादी
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