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स्थापित कर दिखाया है। हम इस भूमिका पर पहुँचे हैं co-existence) राजनीतिक या सामाजिक अहिंसा है; उसी कि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बार्क आदि तरह 'अनेकान्त'-बौद्धिक अहिंसा है। अनेकांत अर्थात् समन्वय। आचार्य जो कहते हैं, वह एक-दूसरे का मारक नहीं है, सार्थक इस अनेकान्त को परिपूर्ण समन्वय कारूप दिया भगवान है। इस कारण भारतीय दर्शनशास्त्र एक नयी समृद्धि पा गौड़पादाचार्य ने। लोग उन्हें अद्वैताचार्य कहते हैं । मैं उन्हें सका है।
'समन्वयाचार्य' कहता हूँ । वेदान्त की सर्व-संग्राहक दृष्टि का अब हमें संस्कृति-समन्वय की दृष्टि बढ़ाकर अपने देश के वर्णन करते हए उन्होंने कहा कि-"और दर्शन आपस में लड़ लिए तीन धाराओंका समन्वय करना आवश्यक हो गया है। सकते हैं, हमारा किसी से झगड़ा नहीं है। हम ऐसी भूमिका बौद्ध-दर्शन, जैन-दर्शन, वेदान्त-दर्शन आपस में चाहे जितना पर खड़े हैं कि जहाँ से हम सब दर्शनों की खुबियाँ देख सकते विवाद करें, संस्कृति की दृष्टि से इन तीनों में सुन्दर समन्वय हैं। इसलिए हम सबका स्वीकार कर सकते हैं और उनकी देखना आज का युग-कार्य है । बुद्ध भगवान् को हम इस युग व्यवस्था भी कर सकते हैं।" यह वेदान्त-दर्शन आज दुनिया के अवतार मानते हैं। उन्होंने अपने जमाने के दार्शनिक के दार्शनिकों में अधिकाधिक प्रतिष्ठा पाने लगा है। यह दर्शन झगड़े को देखकर लोगों से कहा कि भले आदमी, इस आत्मा- कहता है-'धम्म' की स्थापना आत्मशक्ति से होगी जरूर, परमात्मा की झंझट में मत फँसो । अगर वे हैं तो अपने स्थान लेकिन उसकी बुनियाद में 'विश्वात्मैक्य-भाव' होना चाहिए। पर सुरक्षित होंगे, हमें उनकी चर्चा में नहीं पड़ना है । हम सबकी आत्मा 'एक' है। सब राष्ट्र, सब जातियाँ, सब महाकेवल 'धम्म' को मानते और उसी के पालन में अपना वंश (Races) एक ही हैं । इनमें हम द्वैत चलायेंगे तो मानवकल्याण देखते हैं । 'धम्म' के मानी है-सदाचार का सार्वभौम जाति का जीवन विफल होगा। गोरे और काले, लाल और नियम । 'धम्म' ही सच्चा सत्पुरुष-धर्म है। बुद्ध भगवान् को पीले और हमारे जैसे गेहुँए सब एक ही आदि-मानव की कहना था कि मुझे भी 'धम्म' का ही प्रतीक समझो: यो मं सन्तान हैं । रंग-भेद, भाषा-भेद, धर्म और देश-भेद से हमारा पश्यति सो धम्मं पश्यति । यो धम्म पश्यति सो मं पश्यति।' अद्वैत, हमारा ऐक्य टूट नहीं सकता। यह है वेदान्त-धर्म की 'कल्याणो धम्मो।' बुद्ध भगवान् के आर्य अष्टांगिक मार्ग का सीख । कोई शुद्ध पुण्यवान् नहीं, कोई शुद्ध पापी नहीं, सारी प्रचार जगत् के विशाल क्षेत्र में और अधिकांश मानव-जाति दुनिया सद् और असद से भरी है, और इसलिए उसमें अद्वैत में स्थूल रूप से हो चुका है।
यानी ऐक्य है । यह है सच्ची दृष्टि । बुद्ध भगवान के समकालीन भगवान् महावीर ने भी कुछ दिन हुए मैं भोपाल, भेलसा और साँची की ओर ऐसा ही एक युगसन्देश दिया है। ययाति जैसे सम्राट ने अपने गया था। भौगोलिक दृष्टि से यह प्रदेश भारत के केन्द्र में है। लड़कों का यौवन अनुभव करने के बाद और हर तरह के बौद्ध धर्म के समर्थ प्रचारक सारिपुत्त और मोग्गलायन के विलास में डूबने के बाद कहा था : "इस सारी दुनिया में कारण यह एक तीर्थस्थल है ही। भगवान् महावीर के परम जितने चावल हैं, गेहं हैं, तिल हैं—यानी साधन-सम्पत्ति कल्याणमय उपदेश का प्रचार इस प्रदेश में कम नहीं हआ है। हैं और जितने भी दास-दासियाँ हैं, एक आदमी के उपभोग और वेदान्त का प्रचार तो भारतवर्ष के जर-जरे में पैठ के लिए भी पर्याप्त नहीं हैं; इसलिए भोग-विलास को बढ़ाते गया है। भारतवर्ष के हृदय के समान उस स्थान को देखकर मत जाओ; संयम करना सीखो।" भगवान् महावीर ने भी मेरे मन में यह समन्वय की नयी 'प्रस्थानत्रयी' विशेष रूप से यही तपस्या का और संयम का मार्ग सिखाया । उन्होंने यह स्पष्ट हुई। 'अनेकांत' का संदेश समझनेवाले लोगों को चाहिए भी कहा कि, मनुष्य का अनुभव एकांगी होता है, दृष्टि एकांगी कि वे इस स्थान पर ऐसी एक प्रचण्ड प्रवत्तिका वपन कर दें होती है, इन सब दृष्टियों के समन्वय से ही केवल सत्य का, जिसका प्रकाश सारे भारत में ही नहीं, दसों दिशाओं में फैल सम्पूर्ण सत्य का ज्ञान होगा। भगवान् महावीर ने यह भी सके। आज का युग, समन्वय का युग है। महावीर की जयंती बताया कि लोभ और वासना पर विजय पाने के लिए और के दिन हम संकल्प करें कि बौद्ध, जैन और वेदान्त-इस सर्वकल्याणकारी समन्वय-दृष्टि प्राप्त करने के लिए आत्म- त्रिमूर्ति की हम अपनी संगम-संस्कृति में स्थापना करेंगे और शक्ति बढ़ानी चाहिए। स्याद्वाद या अनेकान्तवाद को मैंने भगवान् महावीर की कृपा से सर्व-धर्म-समन्वय का अनुशीलन बौद्धिक अहिंसा का नाम दिया है। जिस तरह peaceful करेंगे।
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