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षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० ४६.९८७
अस्मदाद्यधिष्ठितशरीरवत् । तथा 'यथा तच्छरीरं स्वभावेन प्रस्वेदादिरहितं एवं प्रक्षेपाहार - रहितमपि' इत्यपकर्णनीयमेव, अप्रमाणकत्वात् । तदेवं देशोनपूर्व कोटिकालस्य केवलिस्थितेः संभवादौ दारिकशरीरस्थितेश्च यथायुष्कं कारणमेवं प्रक्षेपाहारोऽपि । तथाहि — तैजसशरीरेण मृतकृतस्याभ्यवहृतस्य स्वपर्याप्त्या परिणामितस्योत्तरोत्तरपरिणामक्रमेणौदा रिकशरीरिणामनेन प्रकारेण क्षुदुद्भवो भवति । वेदनीयोदये चेयं समग्रापि सामग्री भगवति केवलिनि संभवति । ततः केन हेतुनासो न भुङ्क्त इति । न च घातिचतुष्टयस्य क्षुद्वेदनीयं प्रति सहकारिकारणभावोऽस्ति, येन तदभावात्तदभाव इत्युच्यते । इति सिद्धा केवलिभुक्तिः । तथा प्रयोगश्चात्र - केवलिनः प्रक्षेपाहारो भवति कवलाहारकेवलित्वयोरविरोधात्, सात वेदनीयवदिति । इति केवलिभुक्तिव्यवस्थापनस्थलमिति ॥
$ ८७. अथ तत्त्वान्याह -
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से पीड़ित होता है क्योंकि वह भी मांसका बना हुआ शरीर है जैसे कि हम लोगोंका शरीर । इसी तरह आपकी यह बात भी सुनने लायक नहीं है कि- 'जिस प्रकार भगवान् के शरीर में पसीना नहीं आता, बदबू नहीं आती, उनकी आंखोंकी पलकें नहीं झपकतीं उसी तरह उनके शरीरकी स्थिति भोजन किये बिना भी मान लेनी चाहिए ।' क्योंकि आपकी ऐसी बातें बेबुनियाद हैं प्रमाणशून्य हैं । इस तरह जब केवली भगवान् कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण वर्षों तक जीवित रहते हैं, और यदि इतने समय तक उनके शरीरको कायम रखनेके लिए आयुकर्मकी आवश्यकता है तो उसका समर्थ सह का कारण भोजन करना भी उतना ही आवश्यक है । औदारिक-स्थूल शरीरको टिकने के लिए आयुकर्म और भोजन दोनों ही कारण हैं, दोनों ही आवश्यक हैं। जब तैजस शरीर अर्थात् शरीर का ओज या जठराग्निके द्वारा पहलेका खाया हुआ भोजन पचा दिया जाता है और वह रक्त आदि रूपसे शरीर में रच-पच जाता है तब इन स्थूल शरीरवालोंको फिर भूख लग आती है । भूख लगने में वेदनीयकर्मका उदय खास कारण है ही। इस प्रकार जब केवली के वेदनीयका उदय होनेसे भूख लगने के सभी कारण मौजूद हैं तब ऐसी कौन-सी बात बाकी रहती है जिससे केवलीको भोजन करने में हिचकिचाहट होती है ? वह हमारी ही तरह मजेसे भोजन क्यों नहीं करता ? यदि ज्ञानावरण आदि घातियाकर्म वेदनीयकर्मके सहायक होते तो कहा जा सकता था कि 'ज्ञानावरणादि घातिया कर्म रूप सहकारी नहीं हैं अतः वेदनीय कर्म भूखको उत्पन्न नहीं करता ।' पर ज्ञानावरणादि कर्मोंका वेदनीयकर्मके साथ कोई ताल्लुक नहीं है । दोनों अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र हैं । इस प्रकार वेदनीयका सद्भाव रहनेसे केवलीको कवलाहार मानना ही चाहिए । इसलिए हम निश्चित रूपसे कह सकते हैं कि केवली हमलोगोंकी तरह एक-एक ग्रास करके भोजन करता है, क्योंकि केवलज्ञानका भोजन करनेके साथ कोई विरोध नहीं है, जैसे कि साता वेदनीय और केवलज्ञानमें कोई अनबन या विरोध नहीं है उसी तरह केवलज्ञान और कवलाहार भी परस्पर विरोधी नहीं हैं । केवली भी रहे और आनन्दसे भोजन भी करे। इस तरह प्रसंगसे केवीके कवलाहारका समर्थन किया है ॥४६॥
$ ८७. अब तत्त्वोंका निरूपण करते हैं
१. "देशोन पूर्व कोटी विहरणमेवं सतीह केवलिनः । सूत्रोक्तमुपायादि न मुक्तिश्च न नियतकाला स्यात् ॥" — केवळ भुक्तिप्र. इको. २४ । २. तैजससमूहकृतस्य द्रव्यस्याभ्यवहृतस्य पर्याप्त्या । अनुतरपरिणामे श्रुतक्रमेण भवति च तत् सर्वम् ॥” केवलिभुक्तिप्र श्लो. ९ । ३. "ज्ञानावरणीयादेर्ज्ञानावरणादि कर्मणः कार्यम् । क्षुत् तद्विलक्षणास्यां न तस्य सहकारिभावोऽपि ॥" - केवलिभुक्तिप्र. इ. १० । स्था, रत्ना. पृ. ४७५ ।
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