Book Title: Shaddarshan Samucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 408
________________ ३८२ षड्दर्शनसमुच्चये [का० ५७.६३९५६३९५. तथा ननु भोः भोः सकर्णाः प्रतिप्राणिप्रसिद्धप्रमाणप्रतिष्ठितानेकान्तविरुद्धबुद्धिभिभवद्भिरन्यैश्च कणभक्षाक्षपादबुद्धादिशिष्यकैरुपन्यस्यमानाः सर्व एव हेतवो विवक्षयासिद्ध. विरुद्धानकान्तिकतां स्वीकुर्वन्तीत्यवगन्तव्यम् । तथाहि-पूर्व तावत्तेषां विरुद्धताभिधीयते। यदि ोकस्यैव हेतोस्त्रीणि पञ्च वा रूपाणि वास्तवान्यभ्युपगम्यन्ते, तदा सोऽनेकधर्मात्मकमेव वस्तु साधयतीति कथं न विपर्ययसिद्धिः, एकस्य हेतोरनेकधर्मात्मकस्याभ्युपगमात् । न च यदेव पक्षधर्मस्य सपक्ष एव सत्वं तदेव विपक्षात्सर्वतो व्यावत्तत्वमिति वाच्यं, अन्वयव्यतिरेकयोर्भावाभाव. रूपयोः सर्वथा तादात्म्यायोगात्, तत्त्वे वा केवलान्वयी केवलव्यतिरेको वा सर्वो हेतुः स्यात्, न तु त्रिरूपः पश्चरूपो वा, तथा च साधनाभासोऽपि गमकः स्यात् । ६३९६. अथ न विपक्षासत्त्वं नाभ्युपेयते किं तु साध्यसद्भावेऽस्तित्वमेव साध्याभावे नास्तित्वमभिधीयते न तु ततस्तद्भिन्नमिति चेत्, तदसत् । एवं हि विपक्षासत्त्वस्य तात्विकस्याभावाद्धेतोस्त्रैरूप्यादि न स्यात् । अथ ततस्तदन्यद्धर्मान्तरं; तāकरूपस्यानेकात्मकस्य हेतोस्तथाभूतसाध्याविनाभूतत्वेन निश्चितस्यानेकान्तवस्तुप्रसाधनात्कथं न परोपन्यस्तहेतूनां सर्वेषां विरुद्धता, एकान्तविरुद्धनानेकान्तेन व्याप्तत्वात् । अविनाभाव ही को हेतुका लक्षण मानते हैं तो भी अनेकान्त सिद्धान्तको कोई क्षति नहीं होती, क्योंकि हमलोग हेतुके प्रयोगको मात्र अविनाभावकी दृष्टि से नियमित करना चाहते हैं न कि उसके स्वभावको। यदि हेतुका कोई भी एक स्वभाव नियत कर दिया जाय, उसमें कोई परिवर्तन और अनेकरूपता न मानी जाय, तो वह असत् स्वभाववाले खरगोशके सींगकी तरह निःस्वभाव ही हो जायेगा। अतः जो हेतु अनुमान प्रयोगकी दृष्टिसे मात्र अविनाभाव लक्षणवाला है वही स्वभावकी दृष्टिसे अनेक रूप होता है । इस तरह हेतुमें अनेकान्तात्मकता स्पष्ट रूपसे सिद्ध हो जाती है। ६३९५. तथा और भी आप लोग कान खोलकर सुन लो कि प्रमाण प्रसिद्ध तथा सर्वानुभव सिद्ध अनेकान्तवादके विरुद्ध अपना खोटा अभिप्राय रखनेवाले आपने तथा अन्य कणाद अक्षपाद तथा बुद्ध आदिके कुत्सित शिष्योंने स्वपक्षसिद्धिके लिए जितने भी हेतु दिये हैं वे सब असिद्ध विरुद्ध तथा अनैकान्तिक हैं। सबसे पहले उन हेतुओंकी विरुद्धता दिखाते हैं। यदि एक ही हेतुके वास्त. विक तीन या पांच रूप माने जाते हैं तो वह अनेकान्तात्मक हेतु एकान्तके विरुद्ध अनेकान्तको हो सिद्ध करेगा। इस तरह एक हो हेतुको अनेकरूप माननेसे तथा उसको अनेकान्तका ही साधक होनेसे आपके हेतु विरुद्ध हो जाते हैं। शंका-आप बार-बार हेतुको अनेकान्त रूप कह देते हैं। वस्तुतः वह अनेकान्त रूप है ही नहीं। पक्षधर्म हेतुका जो सपक्षमें रहना है वही विपक्षमें नहीं रहना है। हेतुको विपक्षव्यावृत्ति ही सपक्षसत्त्व रूप है । अतः एकरूप ही हेतु है न कि अनेक । समाधान-भावरूप अन्वय और अभावरूप व्यतिरेकको सर्वथा एक नहीं माना जा सकता। यदि ये दोनों वस्तुतः एक हों, तो फिर सभी हेतु या तो केवलान्वयी हो जायेंगे या फिर केवलव्यतिरेको। ऐसी हालतमें कोई भी हेतु त्रिरूपो या पंचरूपी नहीं रह सकेगा। और इस तरह जो केवलान्वयी या केवलव्यतिरेकी हेतु त्रिरूपता और पंचरूपता न होनेके कारण आपके मतसे साधनाभास हुए वे भी साध्यके गमक सिद्ध करनेवाले हो जायेंगे। ६ ३९६. शंका-विपक्षासत्त्वको हम मानते ही नहीं हैं यह बात नहीं, किन्तु साध्यके सद्भावमें हेतुका होना ही उसका साध्यके अभाव में नहीं होना है। अर्थात् सपक्षसत्त्वका फलितरूप ही विपक्षासत्त्व है, इनसे भिन्न नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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