Book Title: Shaddarshan Samucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 430
________________ ४०४ षड्दर्शनसमुच्चये [का०५८.६४५२प्रकारेण स्याद्वादं स्वीकुर्वन्तोऽपि तन्निरासाय च युक्तीः स्फोरयन्तः 'पूर्वापरविरुद्धवादिनः कथं न भवेयुः । कियन्तो वा दधिमाषभोजनात्कृष्णा (कृपणा ) विविच्यन्त इत्युपरम्यते । ४५२. चार्वाकस्तु वराक आत्मतदाश्रितधर्माधर्मानेकान्तस्वर्गापवर्गादिकं सर्व कुग्रहअहिलतयैवाप्रतिपद्यमानोऽवज्ञोपहत एव कर्तव्यः, न पुनस्तं प्रत्यनेकान्ताभ्युपगमोपन्यासेन पूर्वापरोक्तविरोधप्रकाशनेन वा किमपि प्रयोजनं, सर्वस्य तदुक्तस्य सर्वलोकशास्त्रः सह विरुद्धत्वात् । मूर्तेभ्यो भूतेभ्योऽमूर्तचैतन्योत्पादस्य विरुद्धत्वाद्भुतेभ्य उत्पद्यमानस्यान्यत आगच्छतो वा चैतन्यस्यादर्शनात, आत्मवच्चैतन्यस्याप्यन्द्रियकप्रत्यक्षाविषयत्वात इत्यादि। $ ४५३. तदेवं बौद्धादीनामन्येषां सर्वेषामागमाः प्रत्युत स्वप्रणेतृणामसर्वज्ञत्वमेव साधयन्ति न पुनः सर्वज्ञमूलताम्, पूर्वापरविरुद्धार्थवचनोपेतत्वात्। जैनमतं तु सर्व पूर्वापरविरोधाभावास्वस्य सर्वज्ञमूलतामेवावेदयतीति स्थितम् । ६४५४. अथानुक्तमपि किमपि लिख्यते। प्राप्यकारीण्येवेन्द्रियाणीति कणभक्षाक्षपादमीमांसकसावयाः समाख्यान्ति । चक्षुःश्रोत्रेतराणि तथेति ताथागताः। चक्षुर्वर्जानोति स्याद्वादावदातहृदयाः। लिए कुछ कुतर्क उपस्थित करते हैं, यह भी उनका स्ववचन विरोध है। सच तो यह है कि स्याद्वादको माने बिना किसीकी तत्वव्यवस्था या व्यवहार सिद्धि हो ही नहीं सकती। इस तरह दही और उड़दसे बने हुए भोजनमें-से काले उड़द (जन्तु ) बीननेके समान कहां तक दोषोंकी कालिमाको ऊपर लावें, अतः इतना कहकर ही इस पूर्वापरविरोधरूपी दोषान्वेषणके प्रसंगको समाप्त करते हैं। ४५२. चार्वाक तो विचारा अत्यन्त तुच्छ है। वह तो किसी कुग्रहके आवेशसे बेसुध होकर आत्मा और आत्मासे सम्बन्ध रखनेवाले पुण्य-पाप, स्वर्ग-मोक्ष, अनेकान्त आदि सभीका लोप करके संसारकी हँसीका पात्र बना हुआ है, लोग उसकी बुरी तरह उपेक्षा करते हैं, उसकी चर्चा करना पाप समझते हैं । अतः उसके मतमें स्याद्वादका स्वीकार करना और पूर्वापर विरोध दिखाना निरर्थक ही है। उसके सिद्धान्तोंका सभी अन्य दर्शनवालोंने खण्डन किया है। लोक व्यवहार भी उसके नास्तिक विचारोंका समर्थन नहीं करता। मूर्त पृथिवी आदिसे अमूर्त चैतन्यकी उत्पत्ति मानने में सरासर विरोध है। चैतन्य न तो कहींसे आता ही है और न पृथिवी आदि भूतोंसे उत्पन्न ही होता है वह तो आत्मामें रहनेवाला उसीका निजधर्म है। आत्माकी तरह चैतन्य भी इन्द्रिय प्रत्यक्षका विषय नहीं होता। वह तो अहंप्रत्ययके द्वारा मानसिक ज्ञानका विषय होता है। ६४५३. इस तरह बौद्ध आदि दार्शनिकोंके पूर्वापर विरोधसे भरे हुए आगम अपने प्रणेताओंकी असर्वज्ञताको ही खुले तौरसे जाहिर कर रहे हैं। ऐसे बाधित आगम सर्वज्ञमूलक नहीं हो सकते । सर्वज्ञके वचनोंमें पूर्वापर विरोध हो हो नहीं सकता। जैन दर्शनमें कहीं भी पूर्वापर विरोध या स्ववचन बाधाका न होना उसकी सर्वज्ञमूलकताको सिद्ध करता है। यदि जैनदर्शनको सर्वज्ञने न कहा होता तो वह इस तरह सर्वथा निर्बाध तथा प्रमाणसिद्ध नहीं हो सकता था। अतः जैनमत ही सर्वज्ञके द्वारा प्रतिपादित है तथा सत्य है। $४५४. अब मूल ग्रन्थमें जिन बातोंका कथन नहीं है, उनका भी थोड़ा निरूपण करते हैं । वैशेषिक, नैयायिक, मीमांसक तथा सांख्य चक्षु आदि सभी इन्द्रियोंको प्राप्यकारी-पदार्थोंको प्राप्त करके उनसे सन्निकर्ष करके ज्ञान उत्पन्न करनेवाला-मानते हैं। बौद्ध चक्षु और श्रोत्रके सिवाय बाकी स्पर्शन आदि तीन इन्द्रियोंको प्राप्यकारी कहते हैं। पर स्याद्वादी जैन चक्षुके सिवाय सभी श्रोत्र आदि इन्द्रियोंको प्राप्यकारी मानते हैं। १. पूर्वापराविरुद्धवादिनः कथं भवेयुः म. १, प. १, ३ । २. -मानो वजोपहत भ. ३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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