Book Title: Shaddarshan Samucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 476
________________ ४५० षड्दर्शनसमुच्चये [का० ७९. ६ ५५३मतैक्यमेवेच्छन्तीत्यर्थः । तेषाम्-आचार्याणां मते आस्तिकवादिनः पञ्चैव न पुनः षट् ॥७८|| ६५५३. अथ दर्शनानां संख्या षडिति या जगत्प्रसिद्धा सा कथमुपपादनीयेत्याशशक्याह षड्दर्शनसंख्या तु पूर्यते तन्मते किल । लोकायतमतक्षेपे कथ्यते तेन तन्मतम् ॥७९॥ ६५५४. व्याख्या-ये नैयायिकवैशेषिकयोर्मतमेकमाचक्षते तन्मते षड्दर्शनसंख्या तु-षण्णां दर्शनानां संख्या पुनर्लोकायता नास्तिकास्तेषां यन्मतं तस्य क्षेपे मीलन एव । किलेल्याप्तवादे । पूर्यते पूर्णीभवेत् । तेन कारणेन तन्मतं चार्वाकमतं कथ्यते स्वरूपतः प्ररूप्यते । अत्राद्यपादे सप्ताक्षरं छन्दोऽन्तरमिति न छन्दःशास्त्रविरोधः शङ्कनीयः॥७९॥ अथ लोकायतमतम् ६५५५. प्रथमं नास्तिकस्वरूपमुच्यते । कापालिका भस्मोद्धूलनपरा योगिनो ब्राह्मणाद्यन्त्यजान्ताश्चे केचन नास्तिका भवन्ति । ते च जीवपुण्यपापादिकं न मन्यन्ते । चतुर्भूतात्मकं जगदाचक्षते । केचित्तु चार्वाकैकदेशीया आकाशं पञ्चमं भूतमभिमन्यमानाः पञ्चभूतात्मकं जगदिति लेते हैं, अतः इनमें बहुत थोड़ा ही भेद रह जाता है। अतः यही उचित है कि इनको पृथक् न मानकर एक ही मानना चाहिए। इन आचार्योंके मतसे आस्तिकदर्शन पांच ही होते हैं न कि छह ॥७८॥ $ ५५३. 'जब आस्तिकदर्शन पांच ही हैं तब दर्शनोंकी जगत्प्रसिद्ध षट् संख्या कैसे बनेगी? संसारमें तो 'षड्दर्शन' ही प्रसिद्ध हैं' इस शंकाका समाधान करते हैं इन आचार्योंके मतमें पाँच आस्तिकदर्शनोंमें छठा नास्तिक चार्वाकदर्शन मिलानेपर दर्शनोंको छह संख्या पूर्ण होती है, इसीलिए चार्वाक मतका भी निरूपण करते हैं ॥७९॥ ६५५४. जो आचार्य नैयायिक मत और वैशेषिक मतको एक ही मानते हैं उनके मलसे दर्शनोंकी छह संख्या पांच आस्तिकदर्शनोंमें लोकायत इस दृश्य लोकको ही माननेवाले नास्तिकदर्शनके मिलानेपर ही पूर्ण होती है। इसीलिए चार्वाकमतका स्वरूप कहते हैं। इस श्लोकके पहले पादमें सात अक्षर हैं अतः ऐसा ही कोई आर्षछन्द मानना चाहिए। इसे अनुष्टुप् छन्द मानकर छन्दःशास्त्र विरोधको सम्भावना नहीं करनी चाहिए । यह आर्षग्रन्थ है ।।७।। ६५५५. सर्वप्रथम नास्तिकोंका स्वरूप कहते हैं-चार्वाक साधु कापालिकोंकी तरह हाथमें एक कपाल-खप्पर रखते हैं और शरीरमें भस्म लगाते हैं। ब्राह्मणोंसे लेकर अन्त्यजशूद्र तक सभी जातिके लोग चार्वाकयोगियोंमें मिलते हैं। ये आत्मा, पुण्य, पाप आदि अतीन्द्रिय पदार्थोंके झगड़ेमें न पड़कर इनकी सत्ताका सर्वथा लोप करते हैं। इस संसारको पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इस भूतचतुष्टयरूप ही मानते हैं । इनसे अतिरिक्त किसी पांचवें तत्त्वकी सत्ता इन्हें मान्य नहीं है, कोई चार्वाक आचार्य आकाशको भो पांचवां भूत मानकर जगत्को पांचभौतिक १. पुनर्लोकायिता भ. । पुनर्लोकायिता भ. २ । २. क्षेपेण मीलनत एव म. २ । ३. पूर्णीभावात् म.२।४.-पं प्रोच्यते भ. २। ५.-जान्ताश्व आ., प. १,३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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