Book Title: Shaddarshan Samucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 481
________________ -का० ८२६५६१] लोकायतमतम् । भाषमाणान्निरीक्ष्य निजां भार्या जजेल्प । हे भद्रे प्रिये वृकपदं 'अत्र जातावेकवचनं' पश्य निरोक्षस्व कि तदित्याह । यद्-वृकपदं वदन्ति जल्पन्त्यबहुश्रुता लोकरूढया बहुश्रुता अप्येते परमार्थमज्ञात्वा भाषमाणा अबहुश्रु ता एवेत्यर्थः। 'यद्ववन्ति बहुश्रुताः' इति पाठे त्वेवं व्याख्येयम्-लोकप्रसिद्धा बहुश्रु ता इति, तथा होते वृकपदविषये सम्यगविदितपरमार्था बहवोऽप्येकसदृशमेव भाषमाणा अपि बहुमुग्धजेनध्यानध्यमुत्पादयन्तोऽपि च ज्ञाततत्त्वानामावयवचना न भवन्ति । तथा बहवोऽप्यमी वादिनो धार्मिकछमधूर्ताः परवश्वनैकप्रवणा यत्किचिदनुमानागमादिभिर्दाढीमादय जीवाद्यस्तित्वं सदृशमेव भाषमाणा अपि मुधैव मुग्धजनान् स्वर्गादिप्राप्तिलभ्यसुखसंततिप्रलोभनया भक्ष्याभक्ष्यगम्या. गम्यहेयोपादेयादिसंकटे पातयन्तो बहुमुग्धधार्मिकव्यामोहमुत्पादयन्तोऽपि च संतामवधीरणीयवचना एव भवन्तीति । ततः सा पत्युर्वचनं सर्व मानितवती ॥८॥ ६५६१. तदनु च तस्याः स पतिर्यदुपदिष्टवान् तदेव दर्शयन्नाह पिब खाद च चारुलोचने, यदतीतं वरगात्रि तन्न ते । न हि भीरु गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ॥८२।। बुद्धिसे-विचारकर उपस्थित लोगोंसे कहा कि-भाइयो, रातमें कोई भेड़िया जंगलसे नगरमें अवश्य आया है, यदि नहीं आया होता तो उसके पैरके चिह्न कहाँसे आते? पासमें खड़ा हुआ चार्वाक उन पण्डितोंको इस अंट-संट बातचीतको ओर अपनी पत्नीका ध्यान खींचता हुआ हँसीसे बोला कि-हे भद्रे प्रिये, इन भेड़ियेके पैरोंको देखो! ये यद्यपि पैरके चिह्न बहुत हैं फिर सामान्य रूपसे कथन करनेके लिए एकवचनका प्रयोग किया। बहुश्रुत रूपसे प्रसिद्ध होकर भी वस्तुतः अब बहुश्रत पोंगा पण्डित इन्हें भेडियाकै पैर बता रहे हैं। ये तत्त्वको नहीं समझनेके कारण वस्तुतः अबहुश्रुत ही हैं । 'यद्वदन्ति बहुश्रुताः' ऐसा भी पाठ मिलता है। इस पाठका अर्थ यह करना चाहिए-ये लोकमें बहुश्रुत रूपसे प्रसिद्ध पण्डित इन्हें भेडियाके पैर बता रहे हैं। जिस प्रकार ये लोग भेडियाके पैर और मनुष्यके द्वारा किये गये कृत्रिम चिह्नोंका भेद नहीं समझकर जो एकने कह दिया उसीका अनुगमन कर गतानुगतिक हो इन्हें भेडियाके पैर ही मानकर स्वयं ठगे जा रहे हैं तथा बहत-से मुर्ख लोगोंको अज्ञानके गड्ढे में ढकेल रहे हैं और जिस तरह ये इस प्रकारको मुर्खतापूर्ण बातोंसे भेडियाके पैर और कृत्रिम चिह्नोंके भेदको समझनेवालोंकी हंसी और उपेक्षाके पात्र होते हैं ठीक उसी तरह ये बहुत-से धर्मको आड़में स्वार्थ साधन करनेवाले धूर्त लोग दूसरोंको ठगनेके लिए तथा अपना स्वार्थ साधनेके लिए स्वर्ग आदिके सुखोंका लोभ दिखाकर इन भोले प्राणियोंको 'यह भक्ष्य है यह अभक्ष्य है, यह गम्य है यह अगम्य है, यह हेय है यह उपादेय है,' इत्यादि अपनी बुद्धिसे कल्पित भक्ष्याभक्ष्य आदिको भूलभुलैयामें डाल कर अपना उल्लू सीधा करते हैं । इस तरह ये बहुत-से मूर्ख धार्मिकोंको बुद्धिको अपनी कुशलतासे काबू में करके इन्हें अनेक तरहसे ठगते हैं, परन्तु जिन्हें वास्तविक तत्त्वज्ञान है उन समझदारोंके तो उपेक्षा एवं तिरस्कारके पात्र ही होते हैं । इस तरह चार्वाकने अपनी स्त्रीकी आस्तिक बुद्धिको पलट दिया। वह मूढ़ स्त्री अपने पतिके वचनोंपर ठीक उसी तरह विश्वास करने लगी जैसे कि वह स्वर्ग और नरक आदिपर करती थी। ६५६१. इसके बाद उसके पतिने उस स्त्रीको 'जो उपदेश दिया, उसे ध्यानसे सुनिए हे सुलोचने, इसलिए आनन्दसे जो चाहों पियो और जो मनमें आये खाओ। हे सुन्दरि, यह चार दिनको जवानी बीत जानेपर वापस नहीं आयगी। जो गया वह फिर तुम्हें नहीं मिल सकता । स्वर्ग और नरकके चक्कर में पड़कर इस परोसे हुए थालको मत छोड़ो। यह शरीर १, -ल्प भ-म. ३ । २. -जनानामान्ध्यम-म. २ । ३. सतामनवधारणीय -म. २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536