Book Title: Shaddarshan Samucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 486
________________ ४६० षड्दर्शनसमुच्चये [ का. ८७. ६५७३ कामात-विषयसुखसेवनान्न परः काम एव परमो धर्मः, तज्जनितमेव च परमं सुखमिति भावः । अथवा ये धर्मप्रभावादिह लोकेऽपोष्टानिष्टकार्ययोः सिद्धयसिद्धी वदन्ति, तान्प्रति यच्चार्वाका जल्पन्ति तद्दर्शयन्नाह-साध्यवृत्तिनिवृत्तिभ्याम्' इत्यादि । तपोजपहोमादिभिः साध्यस्य प्रेप्सितकार्यस्य या वृत्तिः सिद्धिर्या' च तैरेव तपोजपादिभिरनिष्टस्य साध्यस्य विघ्नानिवृत्तिः असिद्धिरभाव इति यावत्ताभ्यां साध्यवृत्तिनिवृत्तिभ्यां या जने प्रीतिर्जायते सा निरर्था । अर्थशब्दस्य हेत्वर्थस्यापि भावान्निर्हेतुका निर्मूला । तेषां मते हि यस्माद्धर्मः कामान्न पर इति प्राग्वत् ॥८६॥ 5 ५७३. उपसंहरन्नाह लोकायतमतेऽप्येवं संक्षेपोऽयं निवेदितः । अभिधेयतात्पर्यार्थः पर्यालोच्यः सुबुद्धिमिः ॥८७॥ .६ ५७४. व्याख्या-एवम् अमुना प्रकारेण अपेः समुच्चयार्थत्वान्न केवलमन्यमतेषु संक्षेप उक्तो लोकायतमतेऽप्ययमनन्तरोक्तः संक्षेपों निवेदितः। ननु बौद्धादिमतेषु सर्वेष्वपि संक्षेप एवात्र यधुच्यते तहि विस्तरेण तत्परमार्थः कथमक्भोत्स्यते। इत्याशङ्कयाह-'अभिधेय' इत्यादि । अभिधेयस्य-सर्वदर्शनवाच्यस्यार्थस्य तात्पर्यार्थः-अशेषविशेषविशिष्टः परमार्थः परिसमन्तातापौर्वापर्येणालोच्यः स्वयं विमर्शनीयः। अथवा 'लोचड़ दर्शने' इति धातुपाठादालोच्यस्तत्तत्तदीयशास्त्रेभ्योऽवलोकनीयः 'सुबुद्धिभिः सुनिपुर्णमतिभिः संक्षिप्तरुचिसत्त्वानुग्रहार्थत्वादस्य सूत्रकरणस्येति । क्योंकि उनके मतमें काम-विषयभोग भोगनेसे बढ़कर कोई धर्म नहीं है और न विषयसुखसे बढ़कर कोई दूसरा सुख ही । अथवा, जो लोग धर्मके प्रभावसे ही इस लोकमें व्यापारमें लाभ पुत्रोत्पत्ति आदि कार्योंकी सिद्धि तथा पापसे व्यापारमें हानि एवं अन्य शुभ कार्यों में विघ्न मानते हैं, उनके प्रति चार्वाक लोग कहते हैं कि आप लोगोंकी यह कल्पना निर्मूल तथा निष्फल है । तप जप होम आदिसे इच्छित मनोरथोंकी पूर्ति तथा मरी रोग आदि विघ्नोंका अभाव मानना और उन तप जप आदि कार्योंके करनेसे मनःसन्तोष मानना निरर्थक है। तप संयम धर्म आदि करनेपर भी बहुत लोग दुःखी देखे जाते हैं तथा परम अधार्मिक लोग सुखी देखे जाते हैं अतः धर्मसे सुख आदि कहना निर्हेतुक तथा निर्मूल है । चार्वाकोंके मतमें विषयसेवन ही सबसे बड़ा धर्म है ॥८६॥ - ५७३. उपसंहार इस तरह लोकायत मतका भी संक्षेपसे कथन किया है। सुबुद्ध विचारकोंको चाहिए कि वे सभी दर्शनोंके अभिधेय वक्तव्यके तात्पर्य और विस्तारको अच्छी तरह पर्यालोचना करके जो युक्तिसंगत हो उसका अनुसरण करें ॥८॥ " ५७४. इस तरह अन्य मतोंके साथ ही साथ लोकायत मतका भी संक्षिप कथन किया गया है। अपिशब्द समुच्चयार्थक है । यहाँ तो सभी बौद्धादिदर्शनोंका संक्षेपसे ही कथन किया है। इनके विस्तार और तात्पर्यका गहराई और सूक्ष्मताके साथ सुबुद्ध दर्शनप्रेमियोंको स्वयं विचार कर लेना चाहिए । हर एक दर्शनकी बातोंका पूर्वापर सन्दर्भ तत्तत् दर्शनोंके मूल और टीका ग्रन्थोंसे अच्छी तरह देख लेना चाहिए। लोच धातु दर्शनार्थक है। अतः 'पर्यालीच्यः'का अर्थ तत्तत् दर्शनग्रन्थोंसे पूर्वापर सन्दर्भका देखना भी होता है। यह सूत्र ग्रन्थ तो संक्षेपसे दर्शनोंकी रूपरेखा समझनेवाले जिज्ञासुओंके अनुग्रहके लिए बनाया गया है । अथवा, सभी दर्शनोंके पदार्थों के परस्पर विरोधको सुनकर किंकर्तव्यमूढ़ प्राणियों से आचार्य कहते हैं कि-समस्त दर्शनोंके वक्तव्यका १. विन्तरेव भ. २। २. लोकायित भ. १, २, प. १,२। ३. -मतेऽप्येवमनन्त -म. ।। ४.-षणवि-भ.२ । ५. लोचङ्म .। ६. –णबुद्धिभिः म.२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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