Book Title: Shaddarshan Samucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 475
________________ -का० ७८ ९५५२] मीमांसकम् । ४४९ सर्वज्ञो नास्ति अविद्या पर नाम मायावज्ञात्प्रतिभासमानः सर्वः प्रपञ्चोऽवारमार्थिकः । परब्रह्मैव परमार्थसत् ॥७६॥ $ ५४९. उपसंहरन्नाह— जैमिनीयमतस्यापि संक्षेपोऽयं निवेदितः । एवमास्तिकवादानां कृतं संक्षेपकीर्तनम् ॥७७॥ ५५०. व्याख्या - अपिशब्दान्न केवलमपरदर्शनानां संक्षेपो निवेदितो जैमिनीयमतस्थाप्ययं संक्षेपो निवेदितः । वक्तव्यस्य बाहुल्यादल्पीयस्यस्मिन् सूत्रे समस्तस्य वक्तुमशक्यत्वात्संक्षेप एवं प्रोक्तः । अथ प्रागुक्तमतानां सूत्रकृन्निगमनमाहे ' एवं ' इत्यादि । एवम् इत्थमास्तिकवादानां जीव परलोकपुण्यपापाद्यस्तित्ववादिनां बौद्धनैयायिक सांख्यजैन वैशेषिकजैमिनीयानां संक्षेपेण कीर्तनं वक्तव्याभिधानं संक्षेपकीर्तनं कृतम् ॥७७॥ ५५१. अत्रैव विशेषमाह - नैयायिकमतादन्ये भेदं . वैशेषिकैः सह । न मन्यन्ते मते तेषां पञ्चैवास्तिकवादिनः || ७८ || $ ५५२. व्याख्या - अन्ये केचनाचार्या नैयायिकमताद्वैशेषिकैः सह भेदं पार्थक्यं न मन्यन्ते । एकदेवतत्त्वेन तत्त्वानां मिथोऽन्तर्भावनेऽल्पीयस एव भेदस्य भावाच्च नैयायिक वैशेषिकाणां मिथो जिस तरह सीपमें चांदीको सत्ता न होकर उसका प्रतिभास होता है उसी तरह यह जगत् अपनी वास्तविक सत्ता न रखकर भी अविद्यासे प्रतिभासित होता है । जगत्प्रपंच मिथ्या है । ब्रह्म ही परमार्थ सत् है ||७६॥ ५४९. उपसंहार - इस तरह जैमिनि मतका संक्षिप्त कथन समाप्त हुआ। इसके साथ हो साथ आस्तिकदर्शनोंका निरूपण भी समाप्त होता है ॥७७॥ ५५० अपिशब्द से सूचित होता है कि केवल अन्य दर्शनोंका ही कथन नहीं किया है। किन्तु जैमिनिदर्शनका भी यह संक्षिप्त कथन किया गया है। कहना तो बहुत कुछ था परन्तु ग्रन्थकी मर्यादाको देखते हुए इस संक्षिप्त सूत्र ग्रन्थ में संक्षिप्त कथन करना ही उचित है । पहले कहे गये मतों का उपसंहार करते हैं—इस तरह जीव, परलोक, पुण्य, पाप आदिके अस्तित्वको माननेवाले बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक और जैमिनीय इन छह आस्तिकदर्शनोंका संक्षेपसे कथन किया गया है ॥७७॥ $ ५५१. विशेष वक्तव्य - कोई आचार्य नैयायिक और वैशेषिक दर्शनको दो नहीं मानकर इन्हें एक ही मानते हैं, इनमें भेद नहीं करते, उनकी दृष्टिसे पाँच हो आस्तिकवादी दर्शन हैं ॥७८॥ ६५५२. कोई-कोई आचार्य नैयायिक मतसे वैशेषिक मतको पृथक् नहीं मानते। उनका तात्पर्य है कि दोनों ही एक देवताको मानते हैं, दोनों ही एक-दूसरेके तत्त्वोंका अन्तर्भाव कर १. प्रोक्तमतानां म. २ । २. ह एवमित्यमा - म. २ । ३. कृतं ॥७७॥ इति तर्करहस्यदीपिकाय गुणरत्नसूरिविरचितायां मीमांसकमतदर्शनो नाम षष्ठः प्रकाशः । न वैशेषिका नाक्षपादा न सांख्या न लोकायता नापि सांख्या भवन्ति । न मीमांसकास्त्रातुमेतं पतन्तं विशुद्धस्त्वनेकान्तरूपस्त्वमीशः ॐ नमः पार्श्व परमेश्वराय । अथात्रैव विशेषमाह म. २ । ५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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