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षड्दर्शनसमुच्चये
[ का०६५. ६४९७कारिणी अनवस्थितिः। विशेषेष यदि सामान्यं स्वीक्रियते, तदा विशेषस्य रूपहानिः। यदि समवाये जातित्वमङ्गोक्रियते, तदा संबन्धाभावः। केन हि संबन्धेन तत्र सत्ता संबध्यते। समवश्यान्तराभावादिति।
६४९७. परे पुनः प्राहुः - सामान्यं त्रिविधं, महासामान्यं सत्तासामान्य सामान्यविशेषसामान्यं च । तत्र महासामान्यं षट्स्वपि पदार्थेषु पदार्थत्वबुद्धिकारि। सत्तासामान्यं त्रिपदार्थसद्बुद्धिविधायि । सामान्यविशेषसामान्यं तु द्रव्यत्वादि। अन्ये त्वाचक्षते त्रिपदार्थसत्कारो सत्ता, सामान्यं द्रव्यत्वादि, सामान्य-विशेषः पृथिवीत्वादिरिति । लक्षणभेदादेतेषां सत्तादीनां द्रव्यगुणकर्मभ्यः पदार्थान्तरत्वं सिद्धम् ।
$ ४९८. 'अथ' इत्यानन्तर्ये । विशेषस्तु निश्चयतः-तत्त्ववृत्तित एव विनिर्दिष्टः, न पुनर्घटपटकटादिरिव व्यवहारतो विशेषः । तुशब्दोऽनन्तरोक्तसामान्यावस्यात्यन्तव्यावृत्तिबुद्धिहेतुत्वेन भृशं वैलक्षण्यं सूचयति । यत एव निश्चयतो विशेषः, तत एव 'नित्यद्रव्यवृत्तिरन्त्यः' इति । तत्र नित्य है। परन्तु पार्थिव परमाणुओं में परमाणुत्व और पृथिवीत्व दोनोंका समावेश है अतः संकर दोष होनेसे परमाणुत्व जाति नहीं मानी जाती। परमाणुत्वको जाति माननेसे उसका पृथिवीत्व जलत्व अग्नित्व और वायुत्व इन सभीसे सांकर्य होता है, अत: परमाणुत्व एक धर्मविशेष है न कि जाति । जातिमें जाति माननेसे अनवस्था दूषण आता है। यह अनवस्था मूलतः सामान्यपदार्थका ही लोप कर देगी। विशेष पदार्थ में यदि जाति मानी जायः तो विशेष पदार्थका 'स्वतः व्यावर्तक होना' यह स्वरूप ही नष्ट हो जायेगा । क्योंकि जिन पदार्थों में जाति रहती है वे जातिके द्वारा ही अन्य पदार्थोंसे व्यावृत्त होते हैं, स्वतः नहीं। यदि विशेषमें भी जाति मानी जायेगी तो यह भी स्वतः व्यावृत्त नहीं हो सकेगा किन्तु जातिके द्वारा व्यावृत्त होगा। अतः 'स्वतः व्यावर्तकत्व' रूप स्वरूपकी हानि होनेसे विशेषपदार्थ में जाति नहीं मानी जाती। समवायमें जाति मानने में सम्बन्धाभाव नामक दूषण आता है। सत्ता अन्य पदार्थों में समवाय सम्बन्धसे रहती है । समवाय तो एक ही है, तब सत्ता किस सम्बन्धसे समवायमें रहेगी ? इस तरह द्रव्यादि तीन पदार्थों में ही सत्ता समवाय सम्बन्धसे रहती है। बाकी सामान्य आदि पदार्थ स्वरूपसत हैं।
४९७. कोई आचार्य तीन प्रकारका सामान्य मानते हैं-१ महासामान्य, २ सत्तासामान्य, ३ सामान्यविशेषसामान्य । महासामान्य छहों पदार्थों में रहता है तथा उनमें 'पदार्थ पदार्थ' इस पदार्थत्व बुद्धिको उत्पन्न करता है । सत्तासामान्य 'द्रव्य गुण और कर्म' इन तीन पदार्थों में 'सत् सत्' बुद्धि उत्पन्न करता है। द्रव्यत्व आदि अपरसामान्य सामान्यविशेष हैं ये प्रतिनियत द्रव्य आदिमें 'द्रव्य द्रव्य' आदि अनुगत बुद्धि करते हैं। किन्हीं आचार्योंका मत है कि सत्ता 'द्रव्य गुण कर्म' इन तोन पदार्थों में 'सत् सत्' बुद्धि करती है अतः यह सत्तारूप महासामान्य है। द्रव्यत्व आदि सामान्य रूप हैं तथा पृथिवीत्व आदि सामान्यविशेष रूप हैं। द्रव्य गुण और कमसे सत्ता आदिके लक्षण भिन्न हैं अतः ये द्रव्य आदिसे भिन्न हैं, स्वतन्त्र पदार्थ हैं।
४९८. 'अथ' -'इसके बाद' । विशेष पदार्थ निश्चयतः-तात्त्विक दृष्टिसे ही कहा गया न कि घट, पट, चटाई आदिकी तरह व्यावहारिक दृष्टिसे। 'तु' शब्दसे सूचित होता है कि यह विशेष पदार्थ अत्यन्त व्यावृत्त बुद्धि करानेके कारण सामान्य पदार्थसे अत्यन्त विलक्षण है। जिस कारणसे विशेषका निरूपण तात्त्विक दृष्टिसे किया जा रहा है उसो कारणसे वह नित्य द्रव्यमें रहनेवाला तथा अन्त्य है। जिनका न तो कभी उत्पाद ही होता है और न विनाश ही, उन सदा उत्पादविनाश रहित परमाणु आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मनमें इस विशेष पदार्थकी वृत्ति-निवास
१. सामान्यं तु म.२ २.-भ्यः अपदार्था भ. १, २। ३. "नित्यद्रव्यवत्तयोऽन्त्या विशेषाः। ते खल्वत्यन्तव्यावृत्तिहेतुत्वाद्विशेषा एव ।" -प्रश. भा. पृ.४।
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