________________
४४४ षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० ७६. १५३८ज्ञानग्राह्यताशक्तिरुपमानपूर्विकार्थापत्तिरिति । इयं च षट्प्रकाराप्यर्थापत्तिर्नाध्यक्षम्, अतीन्द्रियशक्त्याद्यर्थविषयत्वात् । अत एव नानुमानमपि, प्रत्यक्षपूर्वकत्वात्तस्य, ततःप्रमाणान्तरमेवार्थापत्तिः सिद्धा ॥७॥ ६५३८. अथाभावप्रमाणं स्वरूपतः प्ररूपयति
प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते ।
वस्तुसत्तावबोधार्थ तत्राभावप्रमाणता ।।७६।। $ ५३९, व्याख्या-सदसदंशात्मके वस्तुनि प्रत्यक्षादीनि पञ्च प्रमाणानि सदंशं गृह्यते न पुनरसदंशम् । प्रमाणाभावलक्षणस्त्वभावोऽसदंशं गृह्णीते न पुनः सदंशम् । “अभावोऽपि प्रमाणाभावलक्षणो नास्तीत्यर्थस्यासंनिकृष्टस्य प्रसिद्धयर्थं प्रमाणम् [ शा. भा. १।१ ] इति वचनात् ।
६५४०. अन्ये पुनरभावाख्यं प्रमाणं त्रिधा वर्णयन्ति। प्रमाणपञ्चकाभावलक्षणोऽनन्तरोऽभावः प्रतिषिध्यमानाद्वा तदन्यज्ञानम्, आत्मा वा विषयग्रहणरूपेणानभिनिवृत्तस्वभाव इति । ततः प्रस्तुतश्लोकस्यायमर्थः-प्रमाणपञ्चकं प्रत्यक्षादिप्रमाणपञ्चकं यत्र भूतलादावाधारे घटादेराधेअर्थापत्तिसे घरसे बाहर देवदत्तको सत्ता सिद्ध की जाती है। कुछ आचार्य श्रुतार्थापत्तिका दूसरा ही उदाहरण देते हैं-'मोटा देवदत्त दिनको भोजन नहीं करता' इस वाक्यको सुनकर उसके रात्रिमें भोजन करनेको कल्पना करना श्रुतार्थापत्ति है। इसी तरह गवयसे उपमित होनेवाली गायमें उपमान ज्ञानके ग्राह्य होनेकी शक्तिकी कल्पना करना उपमानपूर्विका अर्थापत्ति मानते हैं । यह छहों प्रकारकी अर्थापत्ति अतीन्द्रियशक्ति आदिको विषय करनेके कारण प्रत्यक्ष रूप नहीं हो संकती। चूंकि अनुमान भी प्रत्यक्ष पूर्वक ही होता है, अतः यह अनुमान रूप भी नहीं है। इस तरह अर्थापत्ति स्वतन्त्र प्रमाण हो है ।।७५||
६५३८. अब अभाव प्रमाणका स्वरूप बताते हैं
वस्तुकी सत्ताके ग्राहक प्रत्यक्षादि पाँच प्रमाण जिस वस्तुमें प्रवृत्ति नहीं करते उसमें अभावप्रमाणको प्रवृत्ति होती है ॥७६॥
६५३९. वस्तु भावाभावात्मक है, उसमें सदंशकी तरह असदंश भी रहता है। प्रत्यक्षादि पांचों प्रमाण वस्तुके सदंशको ही ग्रहण करते हैं असदंशको नहीं। प्रत्यक्षादि प्रमाण पंचकके अभावमें प्रवृत्त होनेवाला अभावप्रमाण वस्तुके असदंशको ही जानता है सदंशको नहीं। कहा भी है-"प्रमाणोंके अभावको अभावप्रमाण कहते हैं । यह 'नास्ति नहीं है' इस अर्थकी सिद्धि करता है। इसे अभावको जानने के लिए किसी प्रकारके सन्निकर्षकी आवश्यकता नहीं होती।"
$ ५४०. कोई आचार्य अभावप्रमाणको तीन रूपसे मानते हैं-१. प्रमाणपंचकका अभाव, २. जिसका निषेध करना है उस पदार्थके मात्र आधारभूत पदार्थका ज्ञान, ३. आत्माका विषयज्ञान रूपसे परिणत ही न होना । वे इस श्लोकका यह अर्थ करते हैं-प्रत्यक्षादि पांच प्रमाण जिस
१. तुलना-"प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते । वस्तुसत्ताऽवबोधार्थ तत्राभावप्रमाणता ॥" -मी, इलो, अमाव. श्लो. १। २. "प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिः प्रमाणाभाव उच्यते । सात्मनः परिणामो वा विज्ञानं वान्यवस्तुनि ॥" -मी. इलो, अभाव. ३लो. १1। “तत्र कुमारिलेन त्रिविधोऽभावो वणित:-आत्मनोऽपरिणाम एकः पदार्थान्तविशेषज्ञानं द्वितीयः...प्रमाणनिवृत्तिमात्रात्मकस्तृतीयः" -तत्त्वसं.पं. पृ. ४६३। ३. तदज्ञानं भ. २।४. आत्मा वि -म.२ । ५. -णामिनि -म.२।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org