Book Title: Shaddarshan Samucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 469
________________ - का० ७५. ९५३७ ] मीमांसकमतम् । ४४३ पत्त्या प्रकल्प्यते । न हि शक्तिरध्यक्ष परिच्छेद्या नाप्यनुमानादिसमधिगम्या अप्रत्यक्षा शक्त्या सह कस्यचिदर्थस्य संबन्धासिद्धेः । अनुमानपूविकार्थापत्तिः यथादित्यस्य देशान्तरप्राप्त्या देवदत्तंस्येव गत्यनुमाने ततोऽनुमानाद्गमनशक्तियोगोऽर्थापत्त्यावसीयते । उपमानपूर्विकार्थापत्तिः यथा 'गवयवद्गौः' इत्युक्तेरर्थाद्व| हदोहादिर्शेक्तियोगस्तस्य प्रतीयते, अन्यथा गोत्वस्यैवायोगात् । शब्दपूविकार्थापत्तिः श्रुतार्थापत्तिरितीतरनामिका यथा शब्दादर्थं प्रतीतौ शब्दस्यार्थेन संबन्धसिद्धिः । अर्थापत्तिपूविकार्थापत्तिः यथोक्तप्रकारेण शब्दस्यार्थेन संबन्धसिद्धावर्थान्नित्यत्वसिद्धिः पौरुषेयत्वे शब्दस्य संबन्धायोगात् । भावपूविकार्थापत्तिः यथा जीवतो देवदत्तस्य गृहेऽदर्शनादर्थादबहिर्भावः । अत्र च चतसृभिरर्थापत्तिभिः शक्तिः साध्यते, पञ्चम्या नित्यता, षष्ठ्या गृहाद्बहिर्भूतो देवदत्त एव साध्यत इत्येवं षट्कारार्थापत्तिः । अन्ये तु श्रुतार्थापत्तिंमन्यथोदाहरन्ति, पोनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्त इति वाक्यश्रवणाद्रात्रिभोजनवाक्यप्रतीतिः, श्रुतार्थापत्तिः । " गवयोपमितस्य गोस्त १ छू करके अग्निमें दाहक – जलानेकी शक्तिकी कल्पना 'अग्निमें दाहक शक्ति है अन्यथा दाह नहीं हो सकता था' इस अर्थापत्ति से की जाती | अतीन्द्रिय शक्तिका प्रत्यक्षसे तो परिज्ञान हो ही नहीं सकता । अतीन्द्रिय परोक्ष शक्तिके साथ किसी पदार्थका अविनाभाव भी पहलेसे गृहीत नहीं है, अतः शक्तिका अनुमान भी नहीं किया जा सकता । अनुमानपूर्विका अर्थापत्तिदेवदत्तका एक देशसे दूसरे देश में पहुँचना गतिपूर्वक देखकर सूर्यके भी एक देशसे देशान्तर पहुँचने से गमन करनेका अनुमान होता है । इस अनुमित गतिके द्वारा गमन शक्तिको कल्पना 'सूर्यमें गमन शक्ति है अन्यथा वह गति नहीं कर सकता' इस अर्थापत्ति से की जाती है । उपमानपूर्विका अर्थापत्ति- ' गवयकी तरह गौ है' इस उपमानवाक्यके अर्थसे गौमें बोझा dar तथा दूध देने आदिकी शक्तिकी कल्पना करना । यदि उसमें बोझा ढोने और दूध देनेकी शक्ति नहीं है तो वह गाय ही नहीं हो सकती । शब्दपूर्विका अर्थापत्ति-शब्द अर्थकी प्रतीति देखकर शब्द और अर्थके वाच्यवाचक सम्बन्धकी कल्पना करना । इसे श्रुतार्थापत्ति भी कहते हैं। अर्थापत्तिपूर्वक अर्थापत्ति-शब्दपूर्विका अर्थापत्ति से शब्द और अर्थके सम्बन्धको जानकर उस सम्बन्धके बलसे शब्दको नित्य और अपौरुषेय सिद्ध करना । शब्द यदि पौरुषेय - पुरुषकृत होगा तो उसमें नित्यसम्बन्ध नहीं बन सकेगा । अभावपूर्विका अर्थापत्ति- जीवित देवदत्तको घरमें न देखकर उसके बाहर होनेकी कल्पना करना। इनमें उपमानपूर्विका अर्थापत्तिपर्यंन्त चार श्रुतार्थापत्तियोंसे शक्तिकी सिद्धि की जाती है। पांचवीं अर्थापत्तिपूर्वक अर्थापत्ति से नित्यता तथा छठीं अभावपूर्विका १. गम्या प्रत्यक्षश -भ २ । -गम्या प्रत्यक्षया श प १, २, क., आ. । २. "वह्नेरनुमिता सूर्ये यानात्तच्छक्तियोग्यता ।" मी. इको. अर्थापत्ति, इलो. ३ । ३. " गवयोपमिता या गौस्तज्ज्ञानग्राह्यता मता ।" - मी. इलो. अर्थापत्ति, श्लो. ४ । ४. - शब्दयो भ. २ । ५. " अभिधानप्रसिद्धयर्यमर्थापत्त्यावबोधितात् । शब्दे बोधकसामर्थ्यात्तन्नित्यत्वप्रकल्पनम् || अभिधा नान्यथा सिद्धयेदितिवाचकशक्त-ताम् । अर्थापत्त्यावगम्यैवं तदनन्यगते पुनः ॥ अर्थापत्यन्तरेणैव शब्दनित्यत्वनिश्चयः ॥” -मी. इको. अर्थापत्ति. इलो. ५-७६. न सिद्धा म. २ । ७. " प्रमाणाभाव निर्णीत चैत्रा भावविशेषितात् । गेहाच्चै त्र बहिर्भावसिद्धिर्या त्विह दर्शिता ॥ तामभावोत्थितामन्यामर्थापत्तिमुदाहरेत् ।" मी. इलो. अर्थापत्ति, इलो. ८-९ । ८. "पीनो दिवा न भुङ्क्ते चेत्येवमादिवचः श्रुतौ । रात्रिभोजनविज्ञानं श्रुतार्थापत्तिरुच्यते ॥" - मो. इलो. अर्थापत्ति इको. ५१ । ९. -त्तिमेवेदा - म. २ । १०. -प्रतिपत्तिः म. १, २, प. १, २ । ११. ६ एतदन्तर्गतः पाठो नास्ति भ. १, २, प. १, २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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