Book Title: Shaddarshan Samucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 458
________________ ४३२ षड्दर्शनसमुच्चये [का०६८ ६५१३समाख्यायते । एतेष चतुर्ष परः परोऽधिकः । एते च चत्वारोऽपि केवलब्रह्माद्वतवादसाधनैकव्यसनिनः शब्दार्थयोनिरासायानेका युक्तीः स्फोरयन्तोऽनिर्वाच्यतत्वे यथा व्यवतिष्ठन्ते तथा खण्डनतर्कादभियुक्तरवसेयम् । नात्र तन्मतं वक्ष्यते इह तु सामान्येन शास्त्रकारः पूर्वमीमांसावादिमतमेव विभणिषुरेवमाह१५१३. जैमिनीयाः पुनः प्राहुः सर्वज्ञादिविशेषणः । देवो न विद्यते कोऽपि यस्य मानं वचो भवेत् ॥६८॥ ६५१४. व्याख्या-जैमिनीयास्तु अवते। सर्वज्ञादीनि विशेषणानि यस्य स सर्वज्ञादिविशेषणः सर्वज्ञः सर्वदर्शी वीतरागः सृष्टयादिकर्ता चेत्यादिविशेषणवान् कोऽपि प्रागुक्तदर्शनसंमतदेवानामेकतरोऽपि देवो-दैवतं न विद्यते, यस्य देवस्य वचो-वचनं मान-प्रमाणं भवेत् । प्रथम तावद्देव एव वक्ता न वर्तते, कुतस्तत्प्रणीतानि वचनानि संभवेयुरिति भावः। तथाहि-पुरुषो न सर्वज्ञः मानुषत्वात् रथ्यापुरुषवत् । ५१५. अथ किंकरायमाणसुरासुरसेव्यमानता त्रैलोक्यसाम्राज्यसूचकछत्रचामरादिविभू'त्यन्यथानुपपत्तिरस्ति सर्वज्ञे विशेष इति चेत्, मायाविभिरपि कीर्तिपूजालिप्सुभिरिन्द्रियजालवशेन तत्प्रकटनात् । यदुक्तं त्वयूथ्येनैव समन्तभद्रेणविषय है वेदान्त । दिन-रात ब्रह्मके स्वरूपका विचार करते रहते हैं। इन चारोंमें क्रमशः कुटीचरसे बहूदक, बहूदकसे हंस तथा हंससे परमहंस उत्कृष्ट होते हैं । ये चारों हो मात्र ब्रह्माद्वैतको सिद्धिमें अपनी सारी शक्ति लगा देते हैं। इन्हें ब्रह्माद्वैतके साधनको चिरकालीन आदत हो जाती है। ये ब्रह्मके सिवाय अन्य शब्द या पदार्थोंके निराकरणके लिए अनेकों यक्तियोंका जाल आखिर में अनिर्वचनीय ब्रह्मकी सिद्धि में वादको समाप्ति करते हैं। अनिर्वचनीय तत्त्वकी सिद्धि तथा परपदार्थ खण्डनका युक्तिजाल खण्डनखण्डखाद्य नामक तर्क ग्रन्थ देखना चाहिए। यहां उनके मतका कथन नहीं किया जायेगा। यहां तो ग्रन्थकार सामान्य रूपसे पूर्वमीमांसक मतके व्याख्यानकी इच्छासे उसोका निरूपण करते ६५१३. जैमिनीय मतानुयायी कहते हैं कि सर्वज्ञत्व आदि गुणोंका धारक कोई देवता हो नहीं है, जिसके वचन प्रमाण माने जा सकें ॥६८॥ ५१४. जैमिनीय तो कहते हैं कि-सर्वज्ञत्व आदि विशेषणोंवाले कोई सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग या सृष्टिकर्ता आदि विशेषणशाली, जैन आदि दर्शनोंमें बताये हुए एक भी देवकी सत्ता नहीं है जिसके वचनोंको सच्चा प्रमाणभूत माना जाय । जब बोलनेवाला अतीन्द्रियार्थका प्रतिपादन करनेवाला यथार्थवक्ता कोई देव ही नहीं है तब कोई भी आगम सर्वज्ञ प्रणीत कैसे कहा जा सकता है ? अतः यह अनुमान स्पष्ट ही किया जा सकता है कि कोई भी पुरुष सर्वज्ञ नहीं है क्योंकि वह मनुष्य है जैसे कि गलो-गली चक्कर काटनेवाला कोई अवारा मूर्ख आदमी।।। ५१५. शंका-भाई, साधारण गलीके घुमक्कड़ अवारेको हम भी सर्वज्ञ नहीं कहते । हम तो उस महान् व्यक्तिको सवज्ञ मानते हैं, जिसकी सुर और असुर सेवा-चाकरी करते हैं तथा जिसके पास त्रिलोकके साम्राज्यका सूचन करनेवाली छत्र, चमर, सिंहासन आदि विभूतियाँ पायो जाती हैं। देव और दानवोंका सेवक होना तथा छत्र, चमर आदि लोकोत्तर विभतियां सर्वज्ञताके बिना हो ही नहीं सकतीं। अतः इन अविनाभावी विभूतियोंके आधारसे आप सर्वज्ञकी सत्ता क्यों नहीं मानते ? १. शब्दाशब्दयोनिरासानिरासयोरनेका भ. २ । २. कश्चित् यस्य म..। ३. वान्न कोऽपि.म. ।। ४. -वतं विद्य-म. २ । ५. तावदेव वक्ता म. २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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