Book Title: Shaddarshan Samucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 463
________________ -का०७१.६५२४ ] मीमांसकमतम् । ४३७ हवनादिक्रियाविषये यदेव प्रेरकं वेदस्य वचनं सैव नोदनेति भावः। प्रवर्तकं तद्वचनमेव निदर्शनेन दर्शयति 'स्वःकामोऽग्नि यथा यजेत्' इति । यथेत्युपदर्शनार्थः । स्वः स्वर्गे कामो यस्य स स्वःकामः पुमान् स्वःकामः सन् । अग्नि-वह्नि यजेत्-तर्पयेत् । अत्रेदं श्लोकबन्धानुलोम्येनेत्थमुपन्यस्तम्। अन्यथा त्वेवं भवति। "अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकाम:" [ मैत्र्यु. ६।३] इति प्रवर्तकवचनस्यो. पलक्षणत्वात् । निवर्तकमपि वेदवचनं नोदना ज्ञेया, यथा "न हिंस्यात्सर्वभूतानि" [ ] इति । एवं न वै हिंस्रो भवेत् इत्याद्यपि। आभिर्नोदनाभिर्नोदितो यदि यथा नोदनं यैर्द्रव्यगुणकर्मभिर्यो हवनादौ प्रवर्तते निवर्तते वो, तदा तेषां द्रव्यादीनां तस्याभीष्टेस्वर्गादिफलसाधनयोग्यतैव धर्म इत्यभिधीयते । एतेन वेदवचनैःप्रेरितोऽपि यदि न प्रवर्तते न निवर्तते वा विपरीतं वा प्रवर्तते, तदा तस्य नरकाद्यनिष्टफलसंसाधनयोग्यतैव द्रव्यादिसंबन्धिनी पापमित्युच्यत इत्यपि ज्ञापितं' द्रष्टव्यम् । इष्टानिष्टार्थसाधनयोग्यतालक्षणौ धर्माधर्माविति हि मीमांसकाः। उक्तं च शाबरे“य एव श्रेयस्करः स एव धर्मशब्देनोच्यते" [ शाबरभा. ११११२ ] अनेन द्रव्यादीनामिष्टार्थसाधनयोग्यता धर्मः इति प्रतिपादितं शबरस्वामिना । भट्टोऽप्येतदेवाह "श्रेयो हि पुरुषप्रीतिः सा द्रव्यगुणकर्मभिः । नोदनालक्षणेः साध्या तस्मादेष्वेव धर्मता ॥१॥" [मी. श्लो. चोदना सू. श्लो. १९१] है। 'यथा' शब्द उदाहरण दिखानेके लिए प्रयुक्त होता है। स्वः-स्वर्ग चाहनेवाला पुरुष अग्निका तर्पण करे । श्लोकमें अक्षरोंको संख्या नियत रहती है अतः 'स्वःकामोऽग्नि यजेत्' यह कह दिया है। वास्तविक रूपमें वह कथन 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः'-स्वर्गाभिलाषी अग्निहोत्र यज्ञ करे, इस प्रवर्तक वेदवाक्यका ही द्योतक है। वेदवचन निवर्तक भी होते हैं अत: नोदना प्रवर्तक तथा निवर्तक दोनों ही रूप होती है। जैसे किसी प्राणीको न मारे', 'हिंसक न बने' इत्यादि । इन नोदना-प्रेरणात्मक वाक्योंसे प्रेरित होकर जो पुरुष प्रेरणाके अनुसार जिन द्रव्य, गुण और क्रियाओंसे हवन आदिमें प्रवृत्ति तथा हिंसा आदिसे निवृत्ति करता है उन द्रव्य, गुण और क्रियाओं में रहनेवाली इष्ट स्वर्गादिफलोंके साधन होने की योग्यता हो धर्म है। पुरुष रूप द्रव्य, जिन बुद्धि आदि गुणोंसे समिध तथा हवनीय द्रव्यको इकट्ठा करनेकी हलन-चलन क्रिया करता है उन सब द्रव्य, गुण और क्रियाओंमें स्वर्गादिफलके साधन होनेकी जो योग्यता-शक्ति है वही धर्म कहलाती है। इससे यह भी सूचित होता है कि वैदिक वचनोंको सुनकर उनसे प्रेरणा पाकर भी जो पुरुष जब हवन आदिमें प्रवृत्ति या हिंसा आदिसे निवृत्ति नहीं करता अथवा अन्य कार्यों में प्रवृत्ति करता है तब उसको अन्यथा प्रवृत्तिमें साधनभूत द्रव्य, गुण और क्रियाओंकी जो नरक आदि अनिष्ट फलोंमें साधन होने की योग्यता-शक्ति है उसे पाप या अधर्म कहते हैं। तात्पर्य यह कि इष्ट साधन पदार्थोंकी योग्यताको धर्म तथा अनिष्ट साधन पदार्थोंकी योग्यता-शक्तिको अधर्म कहते हैं। यह शक्ति तो अतीन्द्रिय होनेसे प्रत्यक्षादि प्रमाणोंका विषय न होकर वेदसे हो जानी जाती है । शाबरभाष्यमें कहा है कि-"जो श्रेयस्कर हो वही धर्म है ।" इस वाक्यसे शबर स्वामीने द्रव्य, गुण आदिको इष्ट अर्थको सिद्ध करनेकी योग्यता ही धर्म शब्दके द्वारा प्रतिपादित की है। कुमारिल भट्टने भी यही कहा है कि-"पुरुषकी प्रीतिको श्रेय कहते हैं । यह प्रीति नोदना-वेदवाक्यके द्वारा प्रतिपादित यागादिमें उपयुक्त होनेवाले द्रव्य, गुण और क्रियाओंसे उत्पन्न होती है अतः स्वर्गादिरूप प्रीतिके साधन द्रव्य, गुण आदिमें ही धर्मरूपता है। यद्यपि ये द्रव्य, गुण और क्रियाएँ इन्द्रियगम्य १. वा तेषां तदा द्र-म.। २. -ष्टफलस्वर्गादिफल भ.१.२, प. २,क। -३. ते विप -भ. २ । ४. ज्ञातव्यं भ. २ । ५. तदाह म.२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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