Book Title: Shaddarshan Samucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 461
________________ -का० ७०.६ ५२२ ] मीमांसकमतम् । विषयातीतपदार्थानामात्मधर्माधर्मकालस्वर्गनरकपरमाणुप्रभृतो नां साक्षात् 'स्पष्टप्रत्यक्षावबोधेन द्रष्टुः ज्ञातुरभावतः असद्धावाद्धेतोः नित्येभ्यः अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावेभ्यः अवधारणस्येष्टविषयत्वाद्वेदवाक्येभ्य एव यथार्थत्वविनिश्चयः अर्थानामनतिक्रमेण यथार्थ तस्य भावो यथार्थत्वं यथावस्थितपदार्थत्वं तस्य विशेषेण निश्चयो भवति । नित्यत्वेनापौरुषेयेभ्यो वेदवचनेभ्य एव यथावदतीन्द्रियाद्यर्थज्ञानं भवति, न पुनः सर्वज्ञप्रणीतागमादिभ्यः सर्वज्ञादीनामेवाभावाविति भावः। यथाहुस्ते "अतीन्द्रियाणामर्थानां साक्षाद्दष्टा न विद्यते। वचनेन हि नित्येन यः पश्यति स पश्यति ॥१॥" ५२०. नन्वपौरुषेयानां वेदानां कथमर्थपरिज्ञानमिति चेत् । अव्यवच्छिन्नानादिसंप्रदायेनेति ॥६९॥ ६५२१. अथैतदेव दृढयन्नाह अत एव पुरा कार्यों वेदपाठः यत्नत । ततो धर्मस्य जिज्ञासा कर्तव्या धर्मसाधनी ॥७॥ ६ ५२२. व्याख्या-अत एव सर्वज्ञाद्यभावादेव पुरा पूर्व वेदपाठः ऋग्यजुःसामाथर्वणानां पाठः प्रयत्नतः कार्यः । ततः किं कर्तव्यमित्याह-'ततो धर्मस्य' इति । ततो वेदपाठादनन्तरं धर्मस्य वाला कोई पुरुषविशेष ही नहीं है तब उत्पाद-विनाशसे रहित सदा स्थिर रहनेवाले वेदवाक्योंसे हो जिस प्रकार पदार्थ स्थित हैं ठीक उसी रूपसे उनका यथावत् वास्तविक निश्चय होता है। सभी वाक्य इष्टका अवधारण करते हैं अतः वेदवाक्योंका ही अतीन्द्रियार्थ प्रतिपादनमें एकमात्र अधिकार समझना चाहिए। वेद अपौरुषेय हैं, इन्हें किसी पुरुषने नहीं बनाया है, ये नित्य हैं। इन सदा एकरूप रहनेवाले अपौरुषेय नित्य वेदवाक्योंसे ही धर्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थोंका यथावत् परिज्ञान हो सकता है न कि सर्वज्ञके द्वारा कहे गये किसी आगमसे; क्योंकि जब सर्वज्ञ ही नहीं है तब तत्प्रणीत आगमकी सम्भावना ही नहीं की जा सकती। कहा भी है-"अतीन्द्रिय पदार्थोंका साक्षात्कार करनेवाला कोई सर्वद्रष्टा नहीं है। अतः नित्य वेदवाक्योंसे जो अतीन्द्रिय पदार्थोंको देखता है, जानता है वही सच्चा देखनेवाला है-अतीन्द्रियदर्शी है।" ६५२०. यद्यपि वेद अपौरुषेय हैं उनका कोई आदि प्रणेता नहीं है फिर भी उनके अर्थ तथा पाठको परम्परा अनादिकालसे अविच्छिन्न रूपसे बराबर चली आती है, उसमें कभी कोई व्यवधान या विच्छेद नहीं पड़ा अतः उसके अर्थका यथार्थ निर्णय हो जाता है। ६५२१. इसी बातको और भी स्पष्ट करते हैं इसीलिए सबसे पहले प्रयत्नपूर्वक वेदोंका स्वरोंके अनुसार पाठ करना चाहिए। इसके बाद धर्मको सिद्ध करनेके लिए धर्मको जिज्ञासा-जाननेको इच्छा उत्पन्न करनी चाहिए ॥७०॥ . १५२२. चूंकि सर्वज्ञ आदिका अभाव है इसलिए सर्वप्रथम ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद इन चारों वेदोंका ह्रस्वदीर्घादि स्वरोंके अनुसार पाठ करना चाहिए, इन्हें कण्ठस्थ कर लेना चाहिए । वेदोंको घोक लेनेके बाद धर्मको जाननेकी इच्छा करनी चाहिए । धर्म तो अतीन्द्रिय १. स्पष्टं प्र-म. २। २. "तस्मादतीन्द्रियार्थानां...." इति पाठभेदेन इलोकोऽयं कुमारिलोक्तमिति कृत्वा तत्त्वसंग्रहे (पृ. ८२८) उद्धृतः। ३. नन्वपौरुषेयानां कथं परि-म. ३ । ४. सामाथर्वणां वेदानां म. १, २, प. १,२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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