Book Title: Shaddarshan Samucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 462
________________ ४३६ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ७१. ६ ५२३ - जिज्ञासा कर्तव्या। धर्मो ह्यतीन्द्रियः, ततः स कोदक्केन प्रमाणे वा ज्ञास्यत इत्येवं ज्ञातुमिच्छा कार्या । सा कीदृशी धर्मसाधनी-धर्मसाधनस्योपायः ॥७॥ ६१२३. यतश्चैवं ततस्तस्य निमित्तं परीक्ष्यं निमित्तं च नोदना । निमित्तं हि द्विविधं जनकं ग्राहकं च । अत्र तु ग्राहकं ज्ञेयम् । एतदेव विशेषिततरं प्राह नोदनालक्षणो धर्मो नोदना तु क्रियां प्रति । प्रवर्तकं वचः प्राहुः स्वःकामोऽग्नि यथा यजेत् ।।७१॥ $ ५२४. व्याख्या-नोद्यन्ते प्रेर्यन्ते श्रेयःसाधकद्रव्यादिषु प्रवर्त्यन्ते जीवा अनयेति नोदनावेदवचनकृता प्रेरणेत्यर्थः । धर्मो नोदनया लक्ष्यते ज्ञायत इति नोदनालक्षणः। धर्मो ह्यतीन्द्रियत्वेन नोदनयैव लक्ष्यते नान्येन प्रमाणेन, प्रत्यक्षादीनां विद्यमानोपलम्भकत्वात्, धर्मस्य तु कर्तव्यतारूपत्वात्, कर्तव्यतायाश्च त्रिकालशन्यार्थरूपत्वात्, त्रिकाल शून्यकार्यरूपार्थविषयविज्ञानोत्पादिका चोदनेति मीमांसकाभ्युपगमात् । अथ नोदनां व्याख्याति 'नोदना तु क्रियां' प्रति इत्यादि । नोवना पुनः क्रियां हवनसर्वभूताहिंसनादानादिक्रियां प्रति प्रवर्तकं वचो वेदवचनं प्राहुर्मीमांसका भाषन्ते। है अतः वह 'किस प्रमाणसे कैसे जाना जा सकता है ?' यह जिज्ञासा करनी चाहिए। यही धर्मजिज्ञासा, धर्मसाधनका आद्य उपाय है। जब धर्म-जिज्ञासा हो जायेगी तब धर्मके जानने के उपायोंकी खोज की जानी चाहिए । अतीन्द्रिय धर्मके जाननेके उपाय प्रत्यक्ष आदि तो हो ही नहीं सकते ॥७०॥ ६५२३. उसके जाननेका एकमात्र निमित्त है नोदना-वेद । निमित्त दो प्रकारके होते हैंएक तो जनक-उत्पन्न करनेवाले और दूसरे ग्राहक-ज्ञान करानेवाले। यहां वेद धर्मका ग्राहकनिमित्त ही विवक्षित है। ' अब इसीका विशेष विवेचन करते हैं धर्म नोदना रूप है। क्रियाके प्रवर्तक वचनोंको नोदना या चोदना कहते है। जैसे 'स्वर्ग चाहनेवाला अग्निहोत्र यज्ञ करे' यह वचन अग्निहोत्र यज्ञरूपी क्रिया पुरुषको प्रवृत्ति कराता है अतः यह वचन नोदना-प्रेरणात्मक है ॥७॥ १५२४. जिसके द्वारा जीव कल्याणकारी द्रव्य आदिमें प्रेरित होकर प्रवृत्त होते हैं उस वैदिक वचनोंसे होनेवाली प्रेरणाको नोदना या चोदना कहते हैं । नोदनाके द्वारा धर्म लक्षित होता है अतः धर्मको नोदना लक्षण कहा है। धर्म अतीन्द्रिय होने के कारण नोदना-वैदिक वचनोंसे ही जाना जाता है, अन्य प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे नहीं; क्योंकि प्रत्यक्ष आदि प्रमाण विद्यमान पदार्थोंके जाननेवाले हैं । धर्म कर्तव्यतारूप है तथा कर्तव्यता त्रिकालशून्य अर्थरूप है। मीमांसकोंने स्वयं बताया है कि चोदना-नोदना त्रिकालशून्य शुद्ध कार्यरूप अर्थका ज्ञान उत्पन्न करती है । तात्पर्य यह कि कर्तव्यता शुद्ध कार्यरूप है उसमें भूत-भविष्यत् या वर्तमान कालका कोई सम्पर्क नहीं है। अतः वह प्रत्यक्षादि प्रमाणोंका विषय नहीं हो सकती. वह तो वेदवाक्योंके द्वारा ही ज सकती है। हवन, सब प्राणियोंपर दया, दान आदि क्रियाओंमें प्रवर्तक-प्रवृत्ति करानेवाले वेद वचनोंको नोदना या चोदना कहते हैं। तात्पर्य यह कि हवन आदि. क्रियाओंमें उनकी सामग्री जुटाने में जो वेदवाक्य प्रेरक होते हैं उन्हें नोदना कहते हैं। वचनोंकी प्रवर्तकता दृष्टान्तसे बताते १. न विज्ञास्य-म. १, २, प. १, २ । २. चोदना भ. २। ३. “चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः ॥२॥ चोदना-इति क्रियायाः प्रवर्तकं वचनमाहुः । आचार्यचोदितः करोमि-इति दृश्यते।" -मी. सू. शाबरमा, ११।२। ४. नोदनेति भ. । ५. मीमांसाभ्युप-म. १, २, प.., २, क. । ६. पुनहवन म. २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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