Book Title: Shaddarshan Samucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 441
________________ -का० ६३. ६ ४७८] वैशेषिकमतम् । - ६४७६. ननु महद्दीर्घयोस्त्र्यणुकादिषु वर्तमानयोद्वणुके चाणुत्वहस्वत्वयोः को विशेषः । महत्सु दीर्घमानीयतां दोघेषु महदानीयतामिति व्यवहारभेदप्रतीतेरस्ति तयोः परस्परतो भेदः। अणुत्वह्रस्वत्वयोस्तु विशेषो योगिनां तद्दर्शिनामध्यक्ष एव। ४७७. संयुक्तमपि द्रव्यं यद्वशादत्रेदं पृथगित्यपोध्रियते, तदपोद्धारव्यवहारकारणं पृथक्वम् । इदं परमिदमपरमिति यतोऽभिधानप्रत्ययो भवतः, तद्यथाक्रमं परत्वमपरत्वं च । "द्वितयमप्येतत दिक्कृतं कालकृतं च। तत्र दिक्कृतस्येत्थमूत्पत्तिः-एकस्यां दिशि स्थितयोरेकस्य द्रष्टुरपेक्षया संनिकृष्टमवधि कृत्वैतस्माद्विप्रकृष्टस्य परेण दिक्प्रवेशेन योगात्परत्वमुत्पद्यते, विप्रकृष्टं चावधि कृत्वैतस्मात्संनिकृष्टस्यापरेण दिक्प्रदेशेन योगादपरत्वमुत्पद्यते। कालकृतं त्वेवमुत्पद्यतेवर्तमानकालयोरनियतदिग्देशसंयुक्तयोर्युवस्थविरयोर्मध्ये युवानमवधिं कृत्वा चिरकालीनस्य स्थविरस्य परेण कालप्रदेशेन योगात्परत्वमुत्पद्यते, स्थविरं चावधिं कृत्वाल्पकालीनस्य यूनोऽपरेण कालप्रदेशेन योगादपरत्वमुत्पद्यते।। ६४७८. 'बुद्धिर्ज्ञानं ज्ञानान्तरग्राह्यम्। सा द्विविधा-विद्याविद्या च। तत्राविद्याँ - -६४७६ शंका-अणुक आदिमें रहनेवाले महत्त्व और दीर्घत्वमें तथा द्वयणुकमें रहनेवाले अणुत्व और ह्रस्वत्वमें परस्पर क्या भेद है? समाधान-'बड़ोंमें-से लम्बेको ले आओ, लम्बोंमें-से बड़ेको ले आओ' ऐसे दो प्रकारके व्यवहारोंसे महत्व और दीर्घत्वमें विशेषता है। दीर्घत्व केवल लम्बेपनकी अपेक्षा है जबकि महत्त्वमें लम्बाई-चौड़ाई दोनों ही विवक्षित हैं। द्वयणुकका प्रत्यक्ष तो योगियोंको ही होता है अतः वे ही उसमें रहनेवाले ह्रस्वत्व और अणुत्वकी विशेषताको साक्षात् देखते हैं। वह शब्दोंसे कही जाने लायक नहीं है। ४७७. आपस में संयुक्त भी द्रव्य जिसके कारण 'ये दोनों स्वरूपसे पृथक् हैं इस पृथक्भेद व्यवहारके विषय होते हैं वह अपोद्धारव्यवहार भेदव्यवहार करानेवाला गुण पृथक्त्व है। 'यह पर-दूर या जेठा, अपर-समीप या लहुरा' इस परापर शब्दके प्रयोग तथा परापरज्ञान में कारणभूत गुण क्रमशः परत्व और अपरत्व हैं । परत्व और अपरत्व दोनों ही दिशा और कालकी अपेक्षासे उत्पन्न होते हैं । दिशाके द्वारा परत्वापरत्वको उत्पत्ति इस प्रकार होती है-एक कोई देखनेवाला व्यक्ति जब एक ही दिशामें दो आदमियोंको क्रमसे खड़ा हुआ देखता है तो समीपवर्ती पुरुषकी अपेक्षा दूरवर्ती पुरुषको पर-अधिक दिशाके प्रदेशोंका संयोग होनेसे पर-दूर समझता है तथा दूरवर्तीको अपेक्षा निकटवर्तीको अपर-कम दिशाके प्रदेशोंका संयोग होनेसे अपर-निकट समझता है। अतः क्रमशः दूरवर्ती और निकटवर्ती पदार्थमें पर और अपर दिशाके प्रदेशोंके संयोगसे परत्व और अपरत्व गुणोंकी उत्पत्ति होती है। इन्हींके कारण 'यह इससे दूर है या यह इससे पास है' यह दूरनिकट-व्यवहार होता है। कालकृत परत्वापरत्वको उत्पत्ति इस प्रकार होती है-जिस किसी भी दिशा या देशमें मौजूद जवान और बूढ़ेमें जवानकी अपेक्षा चिरकालोन बूढ़ेमें पर-अधिक कालका संयोग होनेसे परत्व-जेठापन-की उत्पत्ति होती है तथा बूढ़ेकी अपेक्षा लहुरे जवानमें अपरकम कालका संयोग होनेसे अपरत्व-लहुरापन-की उत्पत्ति होती है। ६४७८. बुद्धि ज्ञानको कहते हैं। ज्ञान स्वयं अपने स्वरूपको नहीं जानता किन्तु वह १.-मक्षममेव म. २। २. रका-म. २। ३. पृथक्त्वमपोद्धारव्यवहारकारणम् ।" -प्रश, मा. पृ. ५९ । ४. परत्वमपरत्वं च परापराभिधानप्रत्ययनिमित्तम् । तत्तु द्विविधं दिक्कृतं कालकृतं च ।"प्रश. मा. पु. ७६ । ५. द्वितीयम-म.२। ६.बुद्धिरुपलब्धिनि प्रत्यय इति पर्यायाः।"-प्रश. भा. पृ. ८३ । ७. "अविद्या चतुर्विधा संशयविपर्ययानध्यवसायस्वप्नलक्षणा ।"-प्रश. मा. पृ. ८४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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