Book Title: Shaddarshan Samucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 416
________________ ३९० षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ५७. ६४१२अन्यथा शशविषाणादेरपि तत्प्रसङ्गात् । तदित्थं साध्यादीनां संबन्धानुपपत्तेरेकान्तमते पक्षधर्मत्वादि हेतुलक्षणमसंगतमेव स्यात्, तथा च प्रतिबन्धो दुरुपपाद एव। $ ४१२. तथैकान्तवादिनां प्रतिबन्धग्रहणमपि न जाघटोति, अविचलितस्वरूपे आत्मनि ज्ञानपौर्वापर्याभावात्, प्रतिक्षणध्वंसिन्यपि कार्यकारणाद्युभयग्रहणानुवृत्त्यैकचैतन्याभावात् । . ६ ४१३. न च कार्याद्यनुभवानन्तरभाविना स्मरणेन कार्यकारणभावादिः प्रतिबन्धोऽनुसंघीयत इति वक्तव्यं अनुभूत एव स्मरणप्रादुर्भावात् । न च प्रतिबन्धः केनचिदनुभूतः, तस्योभयनिष्ठत्वात् । उभयस्य पूर्वापरकालभाविन एकेनाग्रहणादिति न प्रतिबन्धनिश्चयोऽपि । ६४१४. तदेवमेकान्तपक्षे परैरुच्चार्यमाणः सर्वोऽपि हेतुः प्रतिबन्धस्याभावादनिश्चयाच्चानकान्तिक एव भवेत् । को शक्ति भी नहीं रह सकती। यदि असत् पदार्थ भी कार्य करने लगे तो, खरगोशके सींगको भी कुछ कार्य करना चाहिए और कार्यकारी होनेसे सत् हो जाना चाहिए। इस तरह जब साध्यसाधन आदिका एकान्तमतमें सम्बन्ध ही नहीं बन पाता तब हेतके पक्षधर्मत्व आदि रूप कैसे सिद्ध हो सकते हैं ? उन्हें हेतुका स्वरूप मानना असंगत है। अतः साध्य और साधन आदिका सम्बन्ध सिद्ध करना वस्तुतः कठिन है। $ ४१२. एकान्त नित्यवादी आत्माको सर्वथा अपरिवर्तनशील नित्य मानते हैं। वह सर्वथा अविचलित स्वभाववाला है इसलिए उसमें ज्ञानकी पर्यायें भी नहीं बदलती। जब ऐसा कूटस्थ नित्य आत्मा है तो उसे साध्य और साधनके सम्बन्धको ग्रहण करना ही कठिन है। जिस आत्माके ज्ञानमें साध्य-साधन और उनका सर्वोपसंहारी अविनाभाव क्रमशः प्रतिभासित हो वही आत्मा सम्बन्धको ग्रहण कर सकता है। जो सदा एकरस है उसमें इतना क्रमिक परिणमन हो ही नहीं सकता। बौद्ध आत्माको क्षणिक ज्ञान प्रवाह रूप मानते हैं उनका यह क्षणिक आत्मा भी साध्यसाधनके सम्बन को ग्रहण नहीं कर सकता। जिस ज्ञानक्षणने साधनको जाना है वह साध्यको नहीं जानता, साध्यको जाननेवाला ज्ञानक्षण साधनको नहीं जानता। इस तरह कार्यकारण या साध्यसाधन दोनों के जाननेवाले किसो अन्वयी चैतन्यका सद्भाव न होने से उनके सम्बन्धका जानना नितान्त असम्भव है। __ ४१३. बौद्ध-कार्यकारण या साध्यसाधनके अनुभवसे उत्पन्न होनेवाले स्मरणके द्वारा कार्यकारण भाव तथा अविनाभाव आदि सम्बन्धोंका ज्ञान भलीभाँति किया जा सकता है। जैन-स्मरण तो अनुभवके अनुसार होता है। जिस पदार्थका अनुभव होगा उसीका स्मरण आता है। जब कार्यकारणभाव या अविनाभाव आदि सम्बन्धोंका अनुभव ही नहीं हुआ है तब उनका स्मरण कैसे आ सकता है ? सम्बन्ध तो दोमें रहता है। जब आपका कोई भी क्षणिक ज्ञानक्षण पूर्वोत्तर कालभावी दो पदार्थों को नहीं जानता तब वह कैसे उन दोमें रहनेवाले सम्बन्धका परिज्ञान कर सकेगा? कार्यकारण भाव तो क्रमभावी कारण और कार्यमें रहता है। आपके किसी एक ज्ञानक्षणके द्वारा क्रमभावी कार्य और कारणका ग्रहण करना नितान्त असम्भव है। अतः उससे उनके सम्बन्धका ग्रहण भी नहीं हो सकता। ६४१४. इस तरह एकान्तपक्षमें प्रतिवादियोंके सभी हेतु अनैकान्तिक हैं; क्योंकि एक तो उनमें सम्बन्ध ही नहीं बनता, किसी तरह बन भी जाय तो उसका निश्चय करना हो असम्भव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536