Book Title: Shaddarshan Samucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 386
________________ ३६० षड्दर्शनसमुच्चये [ का०५७ ६३६९पृथाद्वयोरप्युपलम्भात् । नापि तृतीयः; एकस्मिन्नपि लोहभाजने रात्रौ शीतस्पर्शो दिवा चोष्णस्पर्शः समुपलभ्यते, न च तत्र विरोधः। नापि तुरीयः, धूपकडुच्छकादौ द्वयोरप्युपलम्भात् । पञ्चमोऽपि न घटते, यत एकस्मिन्नेव तप्तलोहभाजने स्पर्शापेझया यौवोष्णत्वं तत्रैव प्रदेशे रूपापेक्षया शीतत्वम् । यदि हि रूपापेक्षयाप्युष्णत्वं स्यात्, तहि जननयनदहनप्रसङ्गः। $ ३६९. नन्वेकस्य युगपभयरूपता कथं घटत इति चेत्, न; यतो यथैकस्यैव पुरुषस्यापेक्षा. वशाल्लघुत्वगुरुत्वबालत्ववृद्धत्वयुवेत्वपुत्रत्वपितृत्वगुरुत्वशिष्यत्वादीनि परस्परविरुद्धान्यपि युगपदविरुद्धानि तथा सत्त्वासत्त्वादीन्यपि । तस्मान्ने सर्वथा भावानां विरोधो घटते कथंचिद्विरोधस्तु सर्वभावेषु तुल्यो न बाधकः । है तथा अग्नि गरम। एक द्रव्यरूप आधारको अपेक्षा भी विरोध नहीं कहा जा सकता; क्योंकि एक ही लोहेका बरतन रात्रिमें ठण्डा तथा दिनमें गरम देखा जाता है। उस लोहेके बरतनमें रहने वाले शीतस्पर्श तथा उष्णस्पर्शमें कोई विरोध नहीं देखा जाता। एक द्रव्यमें एक समयमें भी दो धर्मोंका विरोध नहीं माना जा सकता; क्योंकि धूपदहनी तथा करछुली आदि एक ही अवयवीद्रव्यमें उसी समय एक ओर ठण्डापन तथा दूसरी ओर उष्णस्पर्श पाया जाता है। धूपदहनी और करछुलीको जिस तरफसे पकड़ते हैं, वह उस ओर ठण्डी तथा दूसरी ओर गरम रहती है। एक समयमें एक द्रव्यके एक ही प्रदेशको अपेक्षा भी विरोध नहीं कह सकते, क्योंकि तपे हुए लोहेके बरतनके जिस प्रदेशमें स्पर्शकी अपेक्षा उष्णता पायी जाती है उसी प्रदेशमें रूपकी अपेक्षा शीतलता सुहावनापन मालूम होता है। यदि उसका रूप भी गरम होता तो देखनेवालोंकी आंखें जल जानी चाहिए थीं। $३६९. शंका-एक वस्तुमें एक साथ परस्परविरोधी दो धर्म कैसे रह सकते हैं ? एक ही वस्तुकी यह युगपत् उभयरूपता तो किसी भी तरह समझमें नहीं आती। समाधान-देखो, जिस प्रकार एक ही पुरुष एक ही समयमें एक ही साथ भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंसे छोटा, बड़ा, बच्चा, बूढ़ा, जवान, पुत्र, पिता, गुरु, शिष्य आदि परस्पर विरुद्ध रूपोंको धारण करता है, उसी तरह सत्त्व, असत्त्व, नित्यत्व, अनित्यत्व आदि धर्म भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंसे वस्तुमें एक ही साथ पाये जाते हैं। जिस समय देवदत्त अपने लड़केका बाप है उसी समय वह अपने बापका बेटा भी तो है, अपने शिष्यका यदि गुरु है तो अपने गुरुका शिष्य भी तो है। यदि किसी कम उमर जवानको अपेक्षा बूढ़ा है तो किसी अधिक उमरवाले बूढ़ेकी अपेक्षा जवान भी तो है । तात्पर्य यह कि एक ही साथ भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंसे एक ही वस्तुमें अनेकों विरोधी धर्म रहते हैं। इसलिए पदार्थों में सर्वया अत्यन्तविरोध तो नहीं कहा जा सकता। कथंचित् थोड़ा-बहुत विरोध तो सभी पदार्थों में पाया जाता है। जो एक वस्तुमें धर्म हैं वह दूसरीमें नहीं हैं। वस्तुओंमें कथंचिद् विरोध हुए बिना भेद ही नहीं हो सकता। अतः कथंचिद् विरोध तो प्रयत्न करनेपर भी नहीं हटाया जा सकता इसलिए वह अपरिहार्य-अवश्यंभावी होनेसे दूषणरूप नहीं है। १. -वत्वपितृत्वपुत्रत्वगुरु-म. २ । “यथा एकस्य देवदत्तस्य पिता पुत्रो भ्राता भागिनेय इत्येवमादयः संबन्धाः जनकत्व जन्यत्वादिनिमित्ता न विरुद्धयन्ते; अर्पणाभेदात् । पुत्रापेक्षया पिता, पित्रपेक्षया पुत्र इत्येवमादिः तथा द्रव्यमपि सामान्यापेक्षया नित्यम्, विशेषार्पणयानित्यमिति नास्ति विरोधः।" -सर्वार्थसि. ५।६२। "अर्पणाभेदादविरोधः पितापुत्रादिसंबन्धवत् ।" -त. वा. पृ. ३६ । २. -न्न भावानां सर्वथा वि-म.२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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