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जैनमतम् ।
-का० ५७ ६३८०] तानियतदेशचारितादौ तेऽनलीकं प्रतिपद्यन्ते । कथं च भ्रान्तज्ञानं भ्रान्तिरूपतयात्मानमसंविदत् ज्ञानरूपतया चावगच्छत् स्वात्मनि स्वभावद्वयं विरुद्धं न साधयेत् । तथा पूर्वोत्तरक्षणापेक्षयैकस्यैव क्षणस्य जन्यत्वं जनकत्वं चाभ्युपागमन् । तथाकारमेव ज्ञानमर्थस्य ग्राहकं नान्यथेति मन्यमानाश्चित्रपटग्राहकं ज्ञानमेकमप्यनेकाकारं संप्रतिपन्नाः। तथा सुगतज्ञानं सर्वार्थविषयं सर्वार्थाकारं चित्रं कथं न भवेत् । तथैकस्यैव हेतोः पक्षधर्मसपक्षसत्त्वाभ्यामन्वयं विपक्षेऽविद्यमानत्वाद् व्यतिरेकं चान्वयविरुद्धं ते तात्त्विकमूरीचक्रिरे। एवं वैभाषिकादिसौगताः स्वयं स्याद्वादं स्वीकृत्यापि तत्र विरोधमुद्भावयन्तः स्वशासनानुरागान्धकारसंभारविलुप्तविवेकदृशो विवेकिनामपकर्णनीया एव भवन्ति ।
६३८०. किं च, सौत्रान्तिकमत एकमेव कारणमपरापरसामग्रचन्तःपातितयानेककार्यकार्याअप्रमाण तथा सफेदी नियतदेशमें गमन करना आदि चन्द्रगत धर्मों में उसे प्रमाण मानते हैं। अतः एक ही द्विचन्द्रज्ञानको अंशतः प्रमाण तथा अंशतः अप्रमाण कहना अनेकान्तका ही निरूपण करना है। जिस व्यक्तिको मिथ्याज्ञान उत्पन्न होता है वह उस मिथ्या ज्ञानका ज्ञानरूपसे तो अनुभव करता है परन्तु मिथ्यात्वरूपसे अनुभव नहीं कर पाता। यदि अपनी भ्रान्तताको जानने लगे तो सम्यग्ज्ञान ही हो जायेगा अथवा मिथ्याज्ञान अपनी ज्ञानरूपताका तो स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे साक्षात्कार करता है पर अपनी भ्रान्तताको नहीं जान पाता। अतः एक हो मिथ्याज्ञानका अंशतः ज्ञानरूपसे स्वरूप साक्षाकार तथा अंशतः मिथ्यारूपसे असाक्षात्कार स्पष्ट ही दो विरोधी भावोंको बताता हुआ अनेकान्तको सिद्ध कर रहा है। इसी तरह वे एक किसी भी क्षणको पूर्व क्षणका कार्य तथा उत्तरक्षणका कारण मानते ही हैं। यदि वह पूर्वक्षणका कार्य न हो तो सत् होकर भी किसीसे उत्पन्न न होनेके कारण वह नित्य हो जायेगा। यदि उत्तर क्षणको उत्पन्न न करे तो अर्थक्रियाकारी न होनेसे अवस्तु हो जायेगा। तात्पर्य यह कि एक मध्यक्षण में पूर्वको अपेक्षा कार्यता तथा उत्तरको अपेक्षा कारणता रूप विरुद्धधर्म मानना अनेकान्तको खुलेरूपसे ही स्वीकार करना है । बौद्ध 'जो ज्ञान जिस पदार्थके आकार होता है वह उसी पदार्थको जानता है, निराकार ज्ञान पदार्थको नहीं जान सकता' इस तदाकारताके नियमको बौद्धोंने प्रमाणताका नियामक माना है। इस नियमके अनुसार नाना रंगवाले चित्रपटको जाननेवाला ज्ञान भी चित्राकार ही होगा। अतः एक ही चित्रपट ज्ञानको अनेक आकारवाला मानना एकको ही चित्र-विचित्ररूप मानना अनेकान्त नहीं तो और क्या है। इसी नियमके अनुसार संसारके समस्त पदार्थों को जाननेवाले सर्वज्ञ सुगतका ज्ञान सर्वाकार याने चित्रविचित्राकार होना ही चाहिए । इस तरह सुगतके एक ही ज्ञानको सर्वाकार मानना भी अनेकान्तका ही समर्थन करना है। बौद्ध हेतुके तीन रूप मानते हैं। वे हेतुको पक्षमें रहने के कारण और सपक्ष दृष्टान्त में उसकी सत्ता होनेके कारण अन्वयात्मक तथा विपक्षमें उसकी सत्ता न होनेके कारण व्यतिरेकात्मक मानते हैं। अन्वय और व्यतिरेक स्पष्ट ही एक दूसरेके विरोधी हैं। इस तरह एक ओर तो एक ही हेतुको वस्तुतः अन्वय रूप और व्यतिरेक रूप मानना तथा दूसरी ओर अनेकान्तको कोसना कहाँकी बुद्धिमानी है ? इस तरह वैभाषिक आदि बौद्ध उक्त प्रकारसे स्याद्वादको स्वयं स्वीकार करके भी अपने मतके दुराग्रहसे विवेकशन्य होकर अनेकान्तमें विरोध आदि दूषणोंको बताते हैं। सचमुच उनकी इस शराबियों-जैसी उन्मत्तदशापर विवेकियोंको दया ही करनी चाहिए। उनकी इस तरहकी स्ववचन विरोधी बातें उपेक्षाके योग्य हैं।
६३८०. सौत्रान्तिक एक ही कारणको भिन्न-भिन्न सामग्रीके सहकारसे एक साथ अनेक कार्योंका उत्पादक मानते हैं। जैसे रूप-रस-गन्ध आदि सामग्रीका एक ही रूपक्षण अपने उत्तर
१.-नि भावद्वयं आ., क. ।
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