Book Title: Shaddarshan Samucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 404
________________ ३७८ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ५७ ६३८८अभिन्ननिमित्तत्वं हि विरोधस्य मूलं, न पुनभिन्ननिमित्तत्वमिति । सुखदुःखनरदेवादिपर्याया अप्यात्मनो नित्यानित्यत्वाधनेकान्तमन्तरेण नोपपद्यन्ते, यथा सर्पद्रव्यस्य स्थिरस्योत्फणविफणावस्थे मिथो विरुद्ध अपि द्रव्यापेक्षया न विरुद्ध, यथैकस्या अङ्गुल्याः सरलताविनाशो वक्रतोत्पत्तिश्च, यथा वा गोरसे स्थायिनि दुग्धपर्यायविनाशोत्तरदधिपर्योयोत्पादौ संभवन्तौ प्रत्यक्षादिप्रमाणेनोप. लब्धो, एवं सर्वस्य वस्तुनो द्रव्यपर्यायात्मकतापि। ६३८८. किं च, सर्वेष्वपि दर्शनेषु स्वाभिमतसाध्यसाधनायाभिधीयमाना हेतवो. ऽप्यनेकान्ताभ्युपगममन्तरेण न समीचीनतामञ्चन्ति, तथाहि-अत्र स्वोपज्ञमेव परहेतुतमोभास्करनामकं वादस्थलं लिख्यते । यथा-इह हि सकलतार्किकचक्रचूडामणितयात्मानं मन्यमानाः सर्वदापि प्रसभं पोषितस्वाभिमाना गुणवत्सु. विद्वत्सु मत्सरं विदधाना मुग्धजनसमाजेऽत्यूजितस्फूजितमभिदधानाः स्पष्टोद्भवेन स्वानुभवेन समस्तवस्तुस्तोमगतमभ्रान्तमनेकान्तमनुभवन्तोऽपि स्वयं च युक्त्यानेकान्तमेव वदन्तोऽपि प्रकटं वचनमात्रेणैवानेकान्तमनिच्छन्तो यथावस्थितं वस्तुस्वरूपमपश्यन्तो पिता भिन्न दृष्टि से है तथा पुत्र भिन्न दृष्टिसे। इसी तरह अनेकान्तात्मक वस्तु भी द्रव्यदृष्टिसे एक तथा पर्यायदृष्टिसे अनेक मानी जाती है। हां यदि वह एकरूपसे ही द्रव्यदृष्टिसे ही एक तथा अनेक दोनों धर्मवाली मानी जाती तो अवश्य ही विरोधकी बात होती। एक ही निमित्तसे दो धर्मोंका मानना ही विरोधकी जड़ है, न कि भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंसे अनेक धर्मोंको स्वीकार करना । यदि आत्माको कथंचित् नित्यानित्यात्मक-परिणामोनित्य न माना जाय; तो उसमें सुख, दुःख, मनुष्य, देव आदि पर्यायें ही न बन सकेंगी; क्योंकि सर्वथा नित्यमें तो सदा स्थायी रहेगा तथा सर्वथा अनित्यमें अत्यन्त परिवर्तित हो जानेसे आत्माकी सत्ता ही न रहेगी। पर्यायें तो द्रव्यको स्थिर रखकर ही हुआ करती हैं। जैसे सांप कभी अपना फन फैलाकर फुफकारता है तथा कभी फनको सिकोर लेता है। इस तरह अवस्था भेद होनेपर भी सर्प द्रव्यदृष्टिसे एक हो बना रहता है, उसमें इन फनवाली तथा बिना फनकी अवस्थाओंका कोई विरोध नहीं है। अथवा जिस तरह अंगुली अंगुली रूपसे स्थिर रहकर भी सीधोसे टेड़ी हो जाती है, उसके सीधेपनका विनाश होता है तथा टेढ़ेपनकी उत्पत्ति होती है और अंगुली ध्रुव रहती है। अथवा, जैसे गोरस बना रहकर भी दूध जमकर नष्ट हो जाता है और दही उत्पन्न हो जाता है, गोरसकी पहलेकी दूध पर्याय नष्ट होकर आगेवाली दही पर्याय उत्पन्न होती है और गोरस द्रव्यरूपसे बना रहता है उसी तरह संसारकी समस्त वस्तुएं द्रव्यरूपसे स्थिर रहकर पर्यायरूपसे उपजती तथा विनष्ट होती रहती हैं । अतः सभी पदार्थ द्रव्य-पर्यायात्मक हैं। $३८८. सभी दर्शनोंमें अपने इष्ट साध्यकी सिद्धिके लिए प्रयुक्त हेतु भी वस्तुको अनेकान्तात्मक माने बिना सच्चे प्रामाणिक हेतु नहीं बन सकते । इसी बातको स्पष्ट करनेके लिए स्वयं टोकाकार ( गुणरत्न ) अपने द्वारा बनाये हुए 'परहेतुतमोभास्कर-' प्रतिवादियोंके हेतुरूपी अन्धकारका विनाशक सूर्य-नामक वादस्थलको लिखते हैं। इस संसारमें अपनेको सकलताकिकचक्रचूड़ामणि समझनेवाले, हमेशा हठपूर्वक मिथ्याभिमानकी पुष्टिमें दत्तचित्त, अन्यगुणी विद्वानोंसे चिढ़कर उनसे ईर्ष्या रखनेवाले, मूर्ख लोगोंमें लम्बी-चौड़ी बातें हांककर फटाटोप जमानेवाले, स्पष्ट अनुभवसे वस्तुको अनेकान्तात्मकताको समझकर स्वपक्षकी युक्तियोंमें उसका यथेष्ट व्यवहार करके भी सिर्फ अपने श्रीमुखसे अनेकान्तको स्वीकार नहीं करनेवाले, वस्तुके यथार्थस्वरूपकी ओरसे आंखें मूंदकर अपने मतके मिथ्यामोहका अनुचित रीतिसे पोषण करनेवाले, आप जैसे वादियोंको हेतुके स्वरूपका स्वयं तो परिज्ञान है नहीं और दूसरे गुणवान् विद्वानोंसे पूछनेमें आप अपना अपमान समझते १.- पर्यया म. २ । २. -पर्य-म. १ । ३. इदमने विलिख्यमानं 'परहेतुतमोभास्करवादस्थलं' समग्रमपि म २ प्रतौ नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536