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-का० ५५.६३१४ ]
जैनमतम्।
सामान्यतो लिखितं साक्षिणो भुक्तिः प्रमाणं त्रिविधं स्मृतम्" [ याज्ञव. स्मृ २।२२ ] इत्युक्तस्य प्रमाणस्यान्येषां च केषांचित्प्रमाणान्तरत्वेन परपरिकल्पितानां यथालक्षणं प्रत्यक्षपरोक्षयोरन्तर्भावो निराकरणं च विधेयम् । तदेवं न प्रत्यक्षपरोक्षलक्षण विध्यातिक्रमं शक्रोऽपि कतुं क्षमः। ___अथ तयोलक्षणाद्यभिधीयते -- स्वपरव्यवसायि ज्ञानं स्पष्टं प्रत्यक्षम् । तद्विप्रकारं, सांव्यवहारिकं पारमाथिकं च।
६३१३. तत्र सांव्यवहारिकं बाह्येन्द्रियादिसामग्रीसापेक्षत्वादपारमाथिकमस्मवादिप्रत्यक्षम् । पारमार्थिकं त्वात्मसंनिधिमात्रापेक्षमवध्यादिप्रत्यक्षम् ।
३१४. सांव्यवहारिक द्वधा, चक्षुरादीन्द्रियनिमित्तं मनोनिमित्तं च । तद्विविधमपि चतुर्धा, अवग्रहेहावायधारणाभेदात् । तत्र विषयविर्षायसंनिपातानन्तरसमुदभूतसत्तामात्रगोचरवर्शनोज्जारूप ही नहीं है। अनुपलब्धि तो अभाव प्रमाण रूप है अतः उसका यथासम्भव प्रत्यक्षादिमें अन्तर्भाव हो जायगा। आदि शब्दसे प्रतिवादियों द्वारा माने गये अन्य प्रमाणोंका भी इन्हीं में अन्तर्भाव कर लेना चाहिए। जैसे वृद्ध नैयायिक विशिष्ट उपलब्धिको उत्पन्न करनेवाले ज्ञानात्मक या अज्ञानात्मक सभी पदार्थों को साधारण रूपसे प्रमाण मान लेते हैं। उन्होंने कहा है कि "लिखित स्टाम्प आदि, साक्षी-गवाही तथा भुक्ति-अनुभव सभी प्रमाण हैं" तथा अन्य वादियों द्वारा भी प्रमाणान्तर माने जाते हैं उन सबके लक्षणोंको विचार करनेपर यदि वे स्वपर व्यवसायी ज्ञानरूप हों तो उन्हें प्रमाण मानकर इन्हीं प्रत्यक्ष और परोक्षमें शामिल कर लेना चाहिए। यदि वे प्रमाणहीन हों तो उनका निराकरण करना चाहिए। इस तरह प्रमाणको प्रत्यक्ष और परोक्ष रूपसे कही गयी दो संख्याका उल्लंघन इन्द्र भी नहीं कर सकता, वह सर्वतः अबाधित है ।
६३१३. अब प्रत्यक्ष और परोक्षके लक्षण आदि कहते हैं। स्व और परके निश्चय करनेवाले स्पष्ट-परनिरपेक्ष ज्ञानको प्रत्यक्ष व हते हैं। प्रत्यक्ष दो प्रकारका है -१ सांव्यवहारिक, २. पारमार्थिक । बाह्य चक्षुरादि तथा प्रकाश आदि सामग्रीसे उत्पन्न होनेवाला हम लोगोंका इन्द्रिय प्रत्यक्ष तथा मानस प्रत्यक्ष सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है । वस्तुतः यह इन्द्रियादिकके परतन्त्र होनेसे परोक्ष है-अपारमार्थिक है परन्तु लोकव्यवहारमें इसकी प्रत्यक्षरूपमें प्रसिद्धि होनेसे इसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। पारमार्थिक प्रत्यक्ष तो आत्ममात्रसे ही उत्पन्न होता है। यह अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान तथा केवलज्ञानके भेदसे तीन प्रकारका है।
३१४. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष दो प्रकारका है-एक तो चक्षुरादि इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाला इन्द्रिय प्रत्यक्ष और दूसरा मात्र मनसे उत्पन्न होनेवाला मानस प्रत्यक्ष। ये दोनों ही प्रत्यक्ष अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाके भेदसे चार प्रकारके होते हैं। इन्द्रिये और पदार्थके योग्य देश स्थितिरूप सम्बन्ध होनेपर सत्तामात्रका आलोचन करनेवाला दर्शन होता है। इस
१.- तमित्यस्य म, २। २ "प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं मुख्यसंव्यवहारतः।"-- लघी. इलो. ३। ३. "इन्द्रियमणोभवं जं तं संववहारपच्चक्खम् ॥९५॥"-विशेषा. भा.। 'तत्र सांव्यवहारिकम् इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्षम ।"-लघी. स्ववृ. इलो.४ । प्रमाणपरी. पृ.६८ । सन्मति.टी. पृ ५.२ । जैनतर्कवा. प.१००। परीक्षाम. १५। प्रमा.मी. १। । न्यायदी. पृ. । ४. "अतीन्द्रियप्रत्यक्ष व्यवसायात्मकं स्फुटमवितथमतोन्द्रियमव्यवधानं लोकोत्तरमात्मार्थविषयम।"-लघी. स्व. श्लो ११ | "सामग्रीविशेषविश्लेषिताखिलावरणमतीन्द्रियमशेषतो मुख्यम् ।' परीक्षाम. २०५५ । “पारमार्थिक पुनरुत्पत्ती आत्ममात्रापेक्षम् ।"-प्रमा, तत्वा. २०१८ प्रमाणमी. १1१1१। न्यायदो. पृ. १० । ५. "अवग्रहहावायधारणाः ।" स्वार्थसू. १।१५। ६. नाज्जातमवान्तर-भ. १,२, प. १,।
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