Book Title: Saptapadi Shastra
Author(s): Sagarchandrasuri
Publisher: Mandal Sangh
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१४४
उत्सूत्रतिरस्कारनामा- विचारपटः
मारे एस खलु णरए, इचत्थं गढिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सइकम्मसमारंभेणं वणस्सइसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसंति, से बेमि इमपि जाइधम्मयं इपि वुद्धिधम्मयं एयंपि बुद्धिधम्मयं इमपि चित्तमंतयं इमपि चित्तमंतय इमपि छिण्णं मिलाइ एयंपि छि मिलाइ इमपि आहारगं एयंपि आहारगं इपि अणिच्चर्यं एपि अणिचयं इपि असासयं एयपि असासयं इमपि चओवचइयं एपि चवचइयं इमपि विपरिणामधम्मयं एपि विपरिणामधम्मयं । एत्थ सत्यं समारभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाता भवति, एन्थ सत्थं असमारभमाणस्स इचेते आरंभा परिण्णाया भवति, तं परिण्णाय मेहावी णेत्र सयं वणस्सइत्थं समारंभेज्जा ठेवण्णेहिं वणस्सइत्थं समारंभावेजा णेवणे वणस्सइसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा, जस्से ते वणसतिसत्य समारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मेत्तिबेमि ॥ " ए वीतरागनउ उपदेश || इणि परिई छहयकाय समारंभ त्रिकरणसुद्धिई साधुटालइ, विराधनानी छोडो सूत्रमति उत्सर्गे नइ व्यवहारि नथो दीसती । बीजी पांच कायन विवर ग्रंथवाधिवाना मेलि नथो लिख्य, वर्णिकामात्र लिख्य छइ ।
पुनः - श्री आचारांगे षष्ठाध्ययने चतुर्थोद्देशके - "ओए समिदं गे. दयं लोगस्स जाणित्ता पाईणं पडीणं दाहिणं rati आइक्खे, विभए किट्टे वेयवी, से उट्ठिएस वा अणुट्ठि
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