Book Title: Saptapadi Shastra
Author(s): Sagarchandrasuri
Publisher: Mandal Sangh

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Page 234
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०८ श्रीसप्तपदीशास्त्र - गुजरातीभाषानुवाद. वळी श्रीभगवतीसूत्रना बारमां शतकना बीजा उद्देशाने विषे जयन्ती श्राविकाए पूच्छेला प्रश्नना अधिकारमा उत्तर आ प्रमाणे आपेल छ:-केटलाक जीवोनुं जागवापणुं सारु, हे भगवन् ! ते शा अभिप्रायथी एम कहो छो के केटलाक जीवोन जागवापणुं सारं ? हे जयन्ती ! जे आ जीवो श्रुतचारित्र रूप धर्मे करी धार्मिक छे, श्रुत रूप धर्मना अनुसारे चालनारा छे, श्रुत रूप धर्म जेमने वल्लभ छे अथवा धमिआत्माओने जे वल्लभ छे. धर्मने कहेनारा अथवा धर्मथी प्रसिद्धि पामेला छे, आ लोकमां ग्रहण करवा लायक धर्मज छ एम जोनारा, धर्ममा प्रेमने धारण करनारा, सम्यकचारित्र रूप धर्मने सेवनारा अने श्रुत-चारित्ररूप धर्मथी पोतानी आजीविका चलावनारा विचरी रह्या छे, एवा जीवोन जागवापणुं सारं छे. ए जीवो जागता छतां घणा प्राण, भृत, जीव अने सत्वोने दुःख नहिं आपनारा अने परिताप नहिं करनारा एवी रीते वर्तनारा होय छे. ते जीवो जागता पोताने अथवा परने अथवा बनेने घणी धार्मिक सारी योजनाएकरी संयोजनारा थाय छे, ए जीवो जागता छता धर्मजागरिकाए करी पोताना आत्माने जागृत करनारा थाय छे. ए जीवोनुं जागृतपणुं सारं छे. ते कारणने लइ हे जयन्ती ! एम कहेवाय छे के केटलाक जीवोनुं जागवापणुं सारूंछे." इत्यादि श्री सिद्धान्तना वचन होवाथी. तथा श्रीदशवकालिकसूत्रना चोथा अध्ययनमा जणावेल छे के:-" सूत्रमा बतावेल इर्या For Private And Personal Use Only

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