Book Title: Saptapadi Shastra
Author(s): Sagarchandrasuri
Publisher: Mandal Sangh

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Page 275
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं. २४९ करी कहे. तेमज व्रत अने क्रियाना फलने वखाणे. आगमसिद्धान्तनो जाणनार, भावथी उठेला-तत्परथएला मुनिओने विषे धर्मने कहे अथवा श्रावकोने, धर्मसांभलवानी इच्छावाळाने अने गुरु विगैरेनी सेवा-भक्ति करनाराओने, संसार सागरनो पार पमाडवाने धर्मनो उपदेश करे. केवा प्रकारनो धर्म कहे ? ते बतावे छे-शांति-अहिंसा तथा विरतिना स्वरूपने कहे,तथा उपशम एटले क्रोधने जीतवो अने निर्दृति-निर्वाणना स्वरूपने कहे, तथा शौच-चित्तनी पवित्रता तेम शरलता, तथा कोमलता अने लाघवता एटले बाह्य तेमज अभ्यंतर परिग्रहना त्यागथी उत्पन्न थनार गुण एमनुं स्वरूप जेम आगममां कहेल होय तेम फेरफार कर्या विना समजावे. हवे कोने समजावे ते कहे छ:-सर्व प्राणीओने-दशविध प्राणने धारणकरनारा संझिपंचेंद्रियोने तथा सर्वभूतोने-मुक्तिगमन योग्य जे भन्य थएला होय तेओने तथा सर्वजीवोने-संयम जीवितेकरी जीवता अने जीववानी इच्छावाळाओने तथा सर्व सच्चोने-तिर्यंच, मनुष्य अने देवो जे संसारमा क्लेशने पामता अने दयाना पात्र एवाओने क्षमादिक दशपकारना धर्मने स्वपर उपकारनामाटे धर्मकथा करवानी लब्धिवान् साधु उपदेश करे. ते पण पूर्वापर विचार करीने जे पुरुषने जे कहेवायोग्य धर्म होय ते मर्यादाथो कहे. पूर्वापर विचार करनार साधु धर्मना स्वरुपने कहे तो पोताना आत्मानी आशातना न करे, बीजानी आशातना न करे, बीजा प्राण, भूत, जीन अने सत्त्वनी आशातना न For Private And Personal Use Only

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