Book Title: Saptapadi Shastra
Author(s): Sagarchandrasuri
Publisher: Mandal Sangh

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Page 282
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५६ श्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजरातीभाषानुवाद. पाणी विगेरे धर्मबुद्धिथी प्राणीओनो नाशकरो उत्पन्न करे छे, तेनो निषेध करवाथी ते आहारपाणीना अर्थाने माटे लाभान्तराय थाय, तेथी तेओ पीडापामे, माटे कूवा खोदवा विगेरे कार्यामां पुण्य नथी एम पण मुनि न बोले. १९ वळी पण एज अर्थने स्पष्ट बतावता कहेछे:-जे कोइ एम प्रशंसा करे के दानशाळा करवी, पाणीनी परबो मंडाववी विगेरेनुं 'दानछे ते घणा जीवोनो उपकार करनार छ' एम बोलनार परमार्थने नहिं समअनार प्रशंसाकरनार घणाजीवोना वधने इच्छेछे, कारणके ते दाननी प्राणातिपातकर्याविना उत्पत्ति थती नथी. वळी जे पोताने तीक्ष्ण बुद्धिवाळा अमे छीए एम माननारा अने आगमना सद्भावने नहीं जाणनारा ते दाननो निषेध करे ते सूत्र अने अर्थना नहीं जाणनारा प्राणीओनी आजीविकाना छेद करनारा छे. २० ते माटे कूवा, तलाव यज्ञ विगेरे करवामां उजमाल थएला राजा के शेठ-साहुकारे साधुओने पुच्छचं होय के 'ए कार्यमा पुण्यनो सद्भावछे के नहीं ?' ते जणावे छे:-जो 'पुण्यछे' एमकहे तो अनंता सूक्ष्म बादर जीवोना सदाए प्राण त्यागज थाय अने लाभ तो थोडा जीवोने थोडं थाय, माटे तेमां पुण्यछे एम न कहे, तो पुण्य नथी' एम निषेध कर्येछते पण तेना अर्थिओने अंतराय थाय, एटलामाटे बन्ने प्रकारे 'पुण्यछे' के 'पुण्य नथी' एम साधुओ न बोले, किन्तु कोइथी पुच्छाएला साधुओ मौनधारण करे. कोइ आग्रह करीने पूछे तो कहे के अमने बेता For Private And Personal Use Only

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