Book Title: Saptapadi Shastra
Author(s): Sagarchandrasuri
Publisher: Mandal Sangh

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Page 271
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं २४५ व्यापारथी कर्मनो बन्ध थायले' एम भगवाने जणावेलछे अने प्रत्याख्यानपरिज्ञाए 'पापकारी मन, वचन अने कायाना व्यापार, तेमज कर्मबंधना हेतुओ त्यागकरवा' एप्रकारे भगवाने बतावेलछे. वळी असार, विजळोनी माफक चंचल अने बहुकटवा एवं जीवितव्य जीववामाटे जीवो आरंभादिकक्रियामां प्रवृत्ति करेछे, तथा वंदावा, पूजावा मनावामाटे कर्मों करेछे, तथा जन्म-मरणथी छूटवामाटे पापकारी क्रियामां प्रवृत्तिकरता जीवो कमेने ग्रहण करेछे, तथा दुःखनो नाश करवामाटे अने पोतानी रक्षा करवासारु आरंभोने पोते सेवन करेछे, बीजाओ पासे करावेछे अने बीज करता होय तेने सारुं माने छे. एवा मकारना सर्वलोकने विषे कर्मना आरंभो जे थइ रह्याछे, ते जाणवाजोइए अने जेने ए कर्मना आरंभो लोकनेविषे जाणवामां आव्याछे खरेखर ते मुनि परिज्ञातकर्मवाळा जाणवा. एम श्रीसुधर्मस्वामी श्रीजंबुस्वामी नामना शिष्यने कहे छे. " वळी श्रीआचारांगसूत्रना पहेला अध्ययनना सातमा उद्देशाने विषे जणावेल छे के:-" एकज पृथ्वीकायविगेरेना आरंभमां प्रवृत्त थएला जे जीवो बधी जीवनिकायना आरंभथी उत्पन्न थरला अने ग्रहण कराता कमेथी ते जीवो बंधाय छे एम जाणो. कारणके एक जीवनिकायसंबंधी आरंभ शेषजीवनिकायना नाश विना करी शकात नथी माटे कोण तेवा कर्मे ग्रहण करेछे ? जे निश्वयथी परमार्थज्ञान विनाना ज्ञानादि पांचप्रकारना आचा For Private And Personal Use Only

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