Book Title: Saptapadi Shastra
Author(s): Sagarchandrasuri
Publisher: Mandal Sangh
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श्री सप्तपदीशास्त्र - गुजराती भाषानुवाद.
रंभ - बीजा जीवोने संताप उत्पन्न थाय तेवुं वर्त्तन ते, तेमज आरंभ एटले प्राणीओना प्राण जेमां नाश थाय एवो व्यापार ते व्रतमां अथवा वचनमां प्रवृत्तिकरनार मुनि यतनावान् संरंभ, समारंभ अने आरंभथी निवृत्ति पामे अर्थात् तेओनो त्याग करे. १" वळी श्रीऔपपातिक उपांगसूत्रमा तथा श्रीठा
सूत्रमा अने श्रीविवाहपन्नती अंगसूत्रमां जणावेल छे के:" सातप्रकारे विनयछे, ते आ, - ज्ञानविनय, दर्शन विनय, चारित्रविनय, मनविनय, वचनविनय, कायविनय अने लोकोपचार विनय. 'तेमां पण वचनविनय केटला प्रकारे ? वचनविनय वे प्रकारेछे, एक वखाणवायोग्य वचनविनय अने बीजो नहि वखाणवालायक वचनविनय, तेमां नहि वखाणवा लायक वचनविनय केवा स्वरुपे छे ? जे वचन पापकारी होय, क्रियासहित होय, कठण, कडवु, निठुर, कर्कश होय, आस्रव करनार, भेद करनार, परिताप करनार, उपद्रव करनार अने जीवने उपघात करनार होय तेवां वचन उच्चारण करे, ते अप्रशस्तवचनविनय जाणवो हवे वखाणवायोग्य वचनविनय कोने कहिए ? ते कहेछे:- अपशस्तवचनविनयथी उलडं ते प्रशस्तवचनविनय जाणवो." बळी श्रीआचारांगसूत्रना प्रथम अध्ययन - शस्त्रपरिज्ञानामे, तेना प्रथम उद्देशामां जणान्युं छे के :- " मन, वचन अने कायाना व्यापारमां भगवान् वीरबर्द्धमानस्वामीए वे प्रकारनी परिज्ञा बतावेलछे, एक ज्ञपरिज्ञा अने बीजी प्रत्याख्यानपरिज्ञा, तेमां ज्ञपरिज्ञाए 'पापकारी
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