Book Title: Saptapadi Shastra
Author(s): Sagarchandrasuri
Publisher: Mandal Sangh
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं २१३
मां नथी. तेथी जाणवुं जोइए के ए कारणिक छे. १३१. साधुवर्गने संथारानुं कर श्रीज्ञातासूत्र छट्टा अंगना प्रथम अध्ययनमां चरितोपदेशे - चरितानुवादे कहेल छे एम जाणो. १३२. संथारो करवानt विधि:-भूमिने प्रमार्जना करीने वस्त्रोनी प्रमार्जना तो चोवीस न थाय पण एक दृष्टि पडिलेहणा करीने. १३३. त्यार पछी अढी हाथ मापवाळो संथारो पाथरीने जंघाओने संकोची उपयोग वाळो थइ यतनापूर्वक तेनापर सूर. १३४. इरियावहि पडिक्कमीने त्यार पछी आचार्यने aira a खमासमण आपीने 'वायणा संदिसाएमि अने वायणा करेमि कही वाचना करे. १३५. उक्कुडासने बेसीने रजोहरण वडे अथवा मुहपत्तिए करीने मस्तकथी लइ पग पर्यन्त शरीरनी प्रमार्जना करीने. १३६. जक्कुडासने रहेल अने डाबा पगवडे संथाराने दबावीने बेठो थको, त्यारपछी गुरु बतावेल विधि जाणवो. १३७. हे ज्येष्ठ आर्यो ! हे ज्येष्ठ आर्यो ! अनुज्ञा आपो, अन्यकार्यने निषेधुं हुं क्षमागुणमां रमण करनार महामुनिओने नमस्कार थाओ, एम कही नवकार. करे मिभंते सामाइयं अने अरिहंतो महदेवो० त्रण वार कहे, त्यारपछी गुणगण रत्ने करी शोभित शरीरवाळा हे परमगुरु ! आप अनुज्ञा आपो तो हुं बहु पडिपुन्नापोरसी रात्रि संथाराने स्थापन करूं. १. आ गाथा बोलीने संथाराना उपर यतनापूर्वक बेसीने एक पग उंचो अथवा लांबो करीने बोलवु जोइए. संथारानी अनुज्ञा आपो ! बाहुरूप ओसिके
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