________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
आचायश्रीभ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं २११
करवानो विधि क्याथी कहेवाणो ?. १२३. छद्मस्थोने दर्शनावरणीयकर्मना उदयथी जी के निद्रा होय छे, तोपण जिनेश्वरे कहेल विधिथी निद्रा छे, ए कथन सद्दहवा योग्य नथी. १२४. रात्रिना त्रीजा पहोरे केवल ज्ञाननी उत्पत्तिनो प्रतिषेध जो होय तो ए वस्तु मानवा योग्य छे. कारणके निद्रामा केवलज्ञाननी उत्पत्ति होति नथी. १२५. छद्मस्थने प्रमाद होय, अने केवलीने प्रमादनो लेश पण न होय: ए बन्नेमांथी आणामां कोण? अने कोण आणामां नहीं ?जेनी प्रवृत्ति मूत्र प्रमाणे छे अने केवल इरियावहि किरिया जेने लागे छे ते आणामांछे, अने बळी जेने संपराइय क्रिया लागे छे, ते आणामां नथी एम जाणवू. १२६, १२७. उपशांतकषायीने तथा क्षीणकषायीने इरियावहिनी क्रिया होय छे, अने ते सिवाय बीजाने संपराइय क्रिया होय छे. आ बीना श्रीभगवतीजी मूत्रमा कहेल छे. तेना ७ मा १०मां अने १८ मां शतकने विसे रहेल आ बीना जाणो साची श्रीजिनेश्वरनो वाणी तेने सांभळीने सद्दहवी जोइए. १२८.१२९. श्रीभगवतीजी मूत्रना ७ मा १० मां अने १८ मां शतकने विषे कहेल छ के-"जेना क्रोध, मान, माया अने लोभ नाश नथी पाम्या अने जे संपराइयाक्रिया करनारा छे. ते उत्सूत्रेज चाले छे" आबु मृत्र वचन होवाथी. अहिं वृत्तिकारे ' उत्सूत्रमनाजैव' उत्सूत्र ते अनाज्ञाज ए प्रकारे व्याख्यान करेल छे. अने "जेना क्रोध, मान, माया अने लोभ नाश पामेला छे, तेने
For Private And Personal Use Only