Book Title: Saptapadi Shastra
Author(s): Sagarchandrasuri
Publisher: Mandal Sangh
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५१ मुं. १५५
इज थाइ ॥ तथा कोई इम कहिस्यइ । वीतरागनइ वचनि साधु नदी उतरइ । तथा मेह वरसतइ गोचरी जाइ । तथा मेहवरसतइ उपाश्रयि आवइ । एकादि वीनइ संयोगि वरसतइ नोसरइ। तउ इहां अकाय संघट्टि सावद्यलागइ । ए उपदेश किम दोधलं, तिहां इम जाणियइ छइ । एकतउ साधुनइ काउ, परं गृहस्थनई नथी काउ । तथा नदीज बहू २ ऊतरिवी नही कही। नदी ऊतर्या माहि धर्मपुण नथी बोल्यउं । जइ बीजउ मार्ग जाइवानउ हुइ तउ नदीजमाहि जाइवउ काउ नथी । इम करतां ज्ञान दर्शन चारित्रराखिवानई काजि नदी उतरतां जयणानी विधि श्रीवीनरागि बोली, परं ए सर्वदा सदा कर्तव्यनउ उपदेश नथी। तथा अल्पवृष्टिमाहि स्थविरकल्पीनई जाइबउ काउं । तउ घणइ वरसतइ जाइबउ स्यइ न काउ । परं जाणियइ कारणि जयणा हेतु काउं। अनई जिनकल्पीनइ न काउं । अथवा जे बरसतइ विहरवा न जाइ ते विराधक इम पुण नथी काउं ।। तथा-स्त्रीनइ संयोगि जइ एकांत हुइ तउ नीसरिवउ काउ, अन्यथा नथो पुण काउ, तिहां ब्रह्मचर्य राखिवानउ कारण छइ । वरसतइ उपाश्रयइ आविवानी आज्ञा छइ । ते कारण गीतार्थ जाणइ, परं जे विराधना लागी ते करिखानउ उपदेश नथी जाणिउ, ते पडिक्कमिवा योग्य जाणियइ छइ, परं गृहस्थनइ एहवउ किहांइ न काउं, तिणि कारणि साधुनइं साधुई कहतां सावधभाषा न बोलाइ । परं गृहस्थनउ जे कर्त्तव्य सुभानुबंध छइ तिहां जे
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