Book Title: Saptapadi Shastra
Author(s): Sagarchandrasuri
Publisher: Mandal Sangh

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Page 231
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं २०५५ ज्ञानने नाश करे छे, अमृतभूत श्रुतज्ञान नाश थए छते जीव आखला जेवो अथवा छांण जेवो बने छे. ५" आम छे, तेथी दर्शनावरणीय कर्मना विपाकोदयथी कदाचित् उघी जाय तोपण जे आत्मार्थी यतनावाळो छे, ते दर्शनमोहनीय महानिद्रानां नाशथी जाग्रत् अवस्थाबाळोज जाणवो, एम कहेल छे. अहिं निद्रा दर्शनावरणीय कर्म विपाकोदयथी आवे छे एम कह्यु, ते कर्म पोतानी मेलेज उदय थाय छे पण कोइना उपदेशथी उदय थतुं नथी, अहिं ए तात्पर्य समजवू. वळी श्रीआचारांगसूत्रना त्रिजा अध्ययनना चोथा उद्देशाने विषे जणावेल छे के:-" सर्वत्र-आ भवमां तथा परभवमा प्रमादीने भय छे पण अप्रमादीने सर्वत्र भय नथी." वळी एज सूत्रना पांचमां अध्यनना बीजा उद्देशाने विषे कहेल छे के:-" विषयादि प्रमादोमां पडेलाओ ते धर्मथी बहार के एम समजो: समजीने अप्रमादि थया थका संयम अनुष्टानमा सावधान रहो." वळी पण एज सूत्रनां नवमां अध्ययनना बोजा उद्देशाने विषे कहेल छे के:-"ए प्रकारनी पूर्व कहेल वस्तिमां त्रणे जगतने जाणनारा, तपस्यामां उजमाल, निश्चल मनवाळा उत्कृष्ट तेर वर्ष सुधी संपूर्ण रात-दिवस संयम-अनुधानमा प्रयत्न करतां निदादि प्रमाद रहित अने निःशंकपणे धर्मध्यान-शुक्ल ध्यान ध्यावता वशी रह्या छे. ६८" वळी भगवान् निद्राने पण घणी सेवता नथी, "बार वर्षेनी अंदर अस्थिक गाममा व्यन्तरे करेल उपसर्गना छेडे कायोत्सर्गमां For Private And Personal Use Only

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