Book Title: Sankshipta Padma Puran
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ • अर्बयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण गयीं और उनकी स्तुति करने लगीं। कान्तिमान् भगवान् धरणीधरने घर्घर स्वरमें गर्जना की। पृथ्वी बोली-भगवन् ! आप सर्वभूतस्वरूप सामवेद ही उनकी उस ध्वनिके रूपमें प्रकट हुआ। परमात्मा हैं, आपको बारम्बार नमस्कार है। आप इस उनके नेत्र खिले हुए कमलके समान शोभा पा रहे थे पाताललोकसे मेरा उद्धार कीजिये । पूर्वकालमें मैं आपसे तथा शरीर कमलके पत्तेके समान श्याम रंगका था। उन ही उत्पन्न हुई थी। परमात्मन् ! आपको नमस्कार है। आप महावराहरूपधारी भगवान्ने पृथ्वीको अपनी दाढ़ोंपर सबके अन्तर्यामी हैं, आपको प्रणाम है। प्रधान (कारण) उठा लिया और रसातलसे वे ऊपरकी ओर उठे। उस और व्यक्त (कार्य) आपके ही स्वरूप हैं । काल भी आप समय उनके मुखसे निकली हुई साँसके आघातसे उछले ही हैं, आपको नमस्कार है। प्रभो! जगत्की सृष्टि हुए उस प्रलयकालीन जलने जनलोकमें रहनेवाले आदिके समय आप ही ब्रह्मा, विष्णु और रुद्ररूप धारण सनन्दन आदि मुनियोंको भिगोकर निष्पाप कर दिया। करके सम्पूर्ण भूतोकी उत्पत्ति, पालन और संहार करते हैं, [निष्पाप तो वे थे ही, उन्हें और भी पवित्र बना दिया।] यद्यपि आप इन सबसे परे हैं। मुमुक्षु पुरुष आपकी भगवान् महावराहका उदर जलसे भीगा हुआ था। जिस आराधना करके मुक्त हो परब्रह्म परमात्माको प्राप्त हो गये समय वे अपने वेदमय शरीरको कपाते हुए पृथ्वीको हैं। भला, आप वासुदेवकी आराधना किये बिना कौन लेकर उठने लगे, उस समय आकाशमें स्थित महर्षिगण मोक्ष पा सकता है। जो मनसे ग्रहण करनेयोग्य, नेत्र आदि उनकी स्तुति करने लगे। इन्द्रियोंद्वारा अनुभव करनेयोग्य तथा बुद्धिके द्वारा ऋषियोंने कहा-जनेश्वरोंके भी परमेश्वर विचारणीय है, वह सब आपहीका रूप है। नाथ! आप केशव ! आप सबके प्रभु हैं। गदा, शङ्ख, उत्तम खड़ ही मेरे उपादान है, आप ही आधार है, आपने ही मेरी सृष्टि और चक्र धारण करनेवाले हैं। सृष्टि, पालन और की है तथा मैं आपहीकी शरणमें हूँ; इसीलिये इस जगत्के संहारके कारण तथा ईश्वर भी आप ही हैं। जिसे परमपद लोग मुझे 'माधवी' कहते हैं। कहते हैं, वह भी आपसे भिन्न नहीं है। प्रभो ! आपका पृथ्वीने जब इस प्रकार स्तुति की, तब उन परम प्रभाव अतुलनीय है। पृथ्वी और आकाशके बीच जितना अन्तर है, वह सब आपके ही शरीरसे व्याप्त है। इतना ही नहीं, यह सम्पूर्ण जगत् भी आपसे व्याप्त है। भगवन् ! आप इस विश्वका हित-साधन कीजिये। जगदीश्वर ! एकमात्र आप ही परमात्मा हैं, आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है। आपकी ही महिमा है, जिससे यह चराचर जगत् व्याप्त हो रहा है। यह सारा जगत् ज्ञानस्वरूप है, तो भी अज्ञानी मनुष्य इसे पदार्थरूप देखते हैं। इसीलिये उन्हें संसार-समुद्रमें भटकना पड़ता है। परन्तु परमेश्वर ! जो लोग विज्ञानवेत्ता है, जिनका अन्तःकरण शुद्ध है, वे समस्त संसारको ज्ञानमय ही देखते हैं, आपका स्वरूप ही समझते हैं। सर्वभूतस्वरूप परमात्मन् । आप प्रसन्न होइये। आपका स्वरूप अप्रमेय है। प्रभो ! भगवन् ! आप सबके उद्भवके लिये इस पृथ्वीका उद्धार एवं सम्पूर्ण जगत्का कल्याण कीजिये। राजन् ! सनकादि मुनि जब इस प्रकार स्तुति कर

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 1001