Book Title: Samavayangasuttam
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: B L Institute of Indology

Previous | Next

Page 337
________________ Basket of Scriptures 285 से किं तं मणुस्ससेणियापरिकम्मे? मणुस्ससेणियापरिकम्मे चोहसविहे पण्णत्ते, तंजहाताई चेव माउयापयाइं जाव नंदावत्तं मणुस्सावत्तं, से त्तं मणुस्ससेणियापरिकम्मे। What is this manusyaśreņikā-parikarma ? It is expounded as fourteen -fold, namely: these are from mātņkāpada up to nandyāvarta manusyāvarta, this is manusyaśreņikā parikarma. अवसेसाइं परिकम्माइं पाढाइयाइं एक्कारसविहाणि पन्नत्ताई। इच्चेताई सत्त परिकम्माई, छ ससमइयाणि, सत्त आजीवियाणि। छ चउक्कणइयाणि, सत्त तेरासियाणि। एवामेव सपुव्वावरेणं सत्त परिकम्माइं 10तेसीतिं भवंतीति मक्खायाति। से त्तं परिकम्माइं। The remaining parikarmas from prsthaśreņikā (up to cyutācyutaśreņikāparikarma are expounded as eleven-fold. Of these seven parikarmas, six are based on Jina doctrine (svasamaya), seventh is on (the doctrine of) Ajivika. The first six parikarmas are based on the four stand-points (naya), the seventh on trairāśikanaya. Thus, these seven parikarmas with regard to former and subsequent (all the species of seven parikarma) are described as eighty-three. That is parikarma. से किं तं सुत्ताइं? सुत्ताइं अट्ठासीति भवंतीति मक्खायातिं तंजहा-11उजगं परिणयापरिणयं बहुभंगियं विपच्चवियं 13अणंतरपरंपरं 14सामाणं संजूहं 16भिन्नं 17आहव्वायं सोवत्थितं 18घटं णंदावत्तं बहुलं 1 पुढापुढे वियावत्तं 2एवंभूतं दुयावत्तं 21वत्तमाणुप्पयं समभिरूढं 8. “स्सावटें जे०। “स्सावद्धं खं० जे १ हे १ ला २। स्साबद्धं ला १। स्सबद्धं हे २ मु०॥ 9. अवि खं०। अवसेसंस जे १)परि हे १ ला २ जे १॥ 10. तेसीतिं नास्ति खं० जे० हे १ ला २॥ 11. उजुगं हे २ मु०। नन्दीसूत्रे द्वाविंशतिसूत्रनाम्नां विविधप्रतिषु विद्यमानाः पाठभेदाः तत्र [पृ० ४४] निर्दिष्टात् कोष्ठकाज्ज्ञातव्याः॥ 12. विपब्वियं हे १ ला २। विप्पच्चइयं मु०। विनयपव्वतियं हे २॥ 13. प्रतिषु पाठा:-अणंतरपरंपरं खं० जे १ हे १, २ ला १, २। अणंतरपरं जे०। अणंतरं परंपरं मु०॥ 14. समाणं ला १ मु०॥ 15. सजूहं खं० जे १ हे १,२ ला २॥ 16. संभिन्नं मु०॥ 17. आहच्चायं खं०। अहव्यायं हे २। अहव्वोयं ला १। अहच्चयं मु०॥ 18. घंटा णंदा हे १ ला २॥ 19. पुढे विया खं०। पुट्ठा विया हे १ ला २१ पुढपुढे विया जे०॥ 20. भूत दुया जे०॥ 21. 'माणप्पयं मु०॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498