Book Title: Samavayangasuttam
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 352
________________ 300 Samavāyāngasūtra 150. 150. केवतिया णं भंते! असुरकुमारावासा पण्णत्ता? गोतमा! 'इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरिं एगं जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जेता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसतसहस्से एत्थ णं रयणप्पभाए पुढवीए चठसटुिं असुरकुमारावाससतसहस्सा पण्णत्ता। तेणं भवणा बाहिं वट्टा, अंतो चउरंसा, अहे पोक्खरकण्णियासंठाणसंठिता, उक्किण्णंतर विपुलगंभीरखातफलिहा अट्टालय'चरिय दारगोउरकवाडतोरणपडिदुवारदेसभागा जंतमुसलमुसंढिसतग्धिपरिवारिता अउज्झा अडयाल कोट्ठयरइया अडयालकतवणमाला लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरत्तचंदणददरदिण्णपंचंगुलितला कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कडझंतधूवमघमघेतगंधुद्धराभिरामा सुगंध वरगंधगंधिया गंधवट्टिभूता अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया णिम्मला वितिमिरा विसुद्धा सप्पभा 'समिरीया सउज्जोया पासादीया दरिसणिजा अभिरूवा पडिरूवा। एवं 12जस्स जंकमती तं तस्स जं जं गाहाहिं भणियं तह चेव वण्णओ। O Lord! How many abodes are expounded of Demon (Asurakumāra] gods? Gautama! On this earth-Gem lustre of one lac eighty thousand yojana thickness, pervading one thousand yojana, from its topside, excluding one thousand yojana from its bottom side and pervading one hundred seventy eight thousand yojana in between, there are expounded to be sixty-four lac abodes of Demon (Asurakumāra) gods. Shape wise all these abodes are circular outwardly, quadrangular- inwardly and like the interior of the lotus downward. 1. तिमीसे खं० जे० ला १॥ 2. हत्तरि जो मु०॥ 3. पुढवीए नास्ति खं० जे० हे १ ला २ ॥ 4. चउरय हे १ ला २ अटीपा०। "चारिका नगरप्राकारयोरन्तरमष्टहस्तो मार्गः, पाठान्तरेण चतुरय त्ति चतुरकाः सभाविशेषा ग्रामप्रसिद्धाः"-अटी०॥ 5. "दारगोउर त्ति गोपुरद्वाराणि प्रतोल्यो नगरस्येव कपाटानि प्रतीतानि"-अटी०॥ 6. कोट्ठरइया मु०॥ 7. 'धूवमघ जे० विना। "तेषां यो धूमः, मघमघेत त्ति अनुकरणशब्दोऽयं मघमघायमानो बहलगन्ध इत्यर्थः, तेन उद्धराणि उत्कटानि ..... अभिरामाणि ..... तथा सुगन्धयः सुरभयो ये वरगन्धाः प्रधानवासाः तेषां गन्ध आमोदो येष्वस्ति तानि सुगन्धिवरगन्धगन्धिकानि"-अटी०॥ 8. मघमघमत खं०॥ 9. द्धयाभि हे १ ला २। 10. गंधिया जे० ला १ मु०। गंधहत्थिया हे १ ला २॥ 11. सस्सिरीया खं०। “समिरीय त्ति समरीचीनि सकिरणानि"-अटी०॥ 12. जं जस्स हे २ मु०॥ "एवमिति तथा यद् भवनादिपरिमाणं यस्य नागमकुमारादिनिकायस्य क्रमते घटते"-अटी०॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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