Book Title: Samavayangasuttam
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 354
________________ 302 Samavāyāngasūtra 18जालंतररयणपंजरुम्मिलितव्व मणिकणगथूभियागा 20विगसितसतवत्तपुंडरीयतिलयरय21णद्धचंदचित्ता अंतो 22बहिं च 2सण्हा तवणिजवालुगा पत्थडा सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। O Lord! How many dwellings are expounded of Astral gods? Gautama! Seven hundred ninety yojana above the very level and charming surface of the Gem-lustre earth, there are innumerable diagonal astral abodes of Astral gods, in the space, with one-hundred ten yojana thickness. These astral abodes are beautifully located, adorned and delightful, pictures of walls embedded with various gems, wind shaken flags and banners, suggesting victory, have one umbrella above another, their summits touching the yault of the sky. केवइया णं भंते ! वेमाणियावासा पण्णत्ता ? गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ उड्डे चंदिमसूरियगहगणनक्खत्ततारारूवाणं वीतिवइत्ता बहूणि जोयणाणि बहूणि जोयणसताणि [2 बहूणि] जोयणसहस्साणि [26बहूणि] जोयणसयसहस्साणि [26बहुगीतो जोयणकोडीतो [26बहुगीतो] जोयणकोडाकोडीतो असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीतो उड़े दूरं वीइवइत्ता एत्थ णं वेमाणियाणं देवाणं सोहम्मीसाण-सणंकुमार-माहिंद-बंभ-लंतगसुक्क-सहस्सार-आणय-पाणय-आरण-ऽच्चुएसु गेवेजमणुत्तरेसु य "चउरासीति विमाणावाससयसहस्सा सत्ताणउतिं च सहस्सा तेवीसं च विमाणा भवंतीति 28मक्खाया। 18. “जालान्तरेषु जालकमध्यभागेषु रत्नानि येषां ते जालान्तररत्नाः, इह प्रथमाबहुवचनलोपो द्रष्टव्यः"-अटी०॥ 19. “यगा जे०॥ 20. वियसियसयपत्त हे २ मु०॥ 21. चंद हे २। इयंद जे०। द्धयंद खं० जे० हे १ ला २॥ . 22. बाहिं हे २ मु०॥ 23. सण्हतवणिज्ज अटीपा०। “पाठान्तरे तु सण्हशब्दस्य वालुकाविशेषणत्वात् श्लक्ष्णतपनीयवालुकाप्रस्तटा इति व्याख्येयम्"-अटी०॥ 24. पत्थडा य सुह' खं० हे १ ला २॥ 25. प्रतिषु पाठः- बहूणि जोयणाणि बहूणि जोयणसयाणि सयसहस्साणि जोयणसयसहस्साणि जोयणकोडीतो जोयणकोडाकोडीतो जे० ला १। बहूणि जोयणसताणि सयसहस्साणिजोयणकोडाकोडीओ खं० हे १। बहूणि जोयणसताणि सयसहस्साणि जोयणकोडीओ जोयणकोडाकोडीओ ला २। बहूणि जोयणाणि बहूणिजोयणसयाणि बहूणि जोयणसहस्साणि बहूणि जोयणसयहस्साणि बहुइओजोयणकोडीओ बहुइओ जोयणकोडाकोडीओ मु०॥ 26. [ ] एतदन्तर्गतः पाठः प्रज्ञापनासूत्रे द्वितीयपदे विद्यते सू० १९६॥ 27. चुलसीइ विजे०॥ च नास्ति जे०॥ 28. मक्खायं हे १ ला २॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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