Book Title: Sachitra Mukh Vastrika Nirnaya
Author(s): Shankarmuni
Publisher: Shivchand Nemichand Kotecha Shivpuri

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Page 19
________________ समय मुंह की यत्ना की तरफ ध्यान नहीं रहेगा। इसी ही कारण जैन मुनि मुख-वस्त्रिका मुख पर सतत वांधे रहते हैं। नवीन प्रणाली के चलाने वालों ने भी एक समय में दो उपयोग नहीं,इसी वीर वाक्य पर ध्यान देकर व्याख्यानादि देते समय मुखपत्ती मुख पर बान्ध कर देना,ऐसा प्रत्येक स्थल पर अपने रचित ग्रन्थों, टीका, भाप्य, नियुक्ति में उल्लेख किया हैं। जो लोग अपने पूर्वाचायों की उक्त श्राशा का पालन नहीं करते हुए मुखपत्ती को हाथ में ही रख कर व्याख्यानादि देते हैं। उस समय मुखपत्ती वाला उन का हाथ कभी बिलास भर, कभी हाथ भर दूर चला जाता है । जब व्याख्याता दोनों हाथों को फैलाता है, उस समय मुखपत्ती मुंह से कितनी दूर पर चली जाती है । जिस समय मुखपत्ती वाले हाथ को उपदेश दाता नीचे की ओर ले जाता है । उस समय कटि से नीचे घुटने के पास मुखपत्ती चली जाती है। और उपदेशक जी हृदय को दया विहीन कर विना मुखपत्ती के खुल्ले मह से बेखटके बोलते हुए चले जाते है । भवभीरू दयाव-हृदयी पुरुपों के जरिये किसी प्राणी का यत्किचित भी दिल दुःख जाता है तो वे उसका सारा दिन भर पश्चाताप करते रहते है। किन्तु, हमारे नवीन प्रणाली के प्रचारक मुनि नामधारी अहिंसा के उपासकों के हृदय में उन एक वक्त खुल्ले मह बोलने पर मरजाने वाले अपाहिज असंख्य वायु-कायिक जीवों पर तनिक भी दया प्राप्त नहीं होती। अफसोस ? अफसोस !! जिनागम विहित प्राचीन प्रणाली की उत्थापना कर हाथ में मुखपत्ती धारण करने की नवीन प्रणाली के जन्म दाताओं को नवीन योजना निकालते समय तो तनिक भी विचार नहीं हुवा, किन्तु अव उन को विचार उत्पन्न होने लगा कि उपदेश देते वक्त मुह कीयत्ना की ओर ध्यान रखें कि देशना की तरफ,

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