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मुखवत्रिका |
[ ३३ ]
वैष्णवों के धर्म ग्रन्थों के प्रमाण शिवपुराण के इक्कीसवें अध्याय के पच्चीसवें श्लोक में जैनसाधु का वर्णन इस प्रकार किया है ।
हस्ते पात्रं दधानश्च, तुण्डे वस्त्रस्य धारकाः । मलिनान्येव वासांसि धारयन्तो ऽल्प भाषिणः ।। २५ ।। श्रर्थात् जैन साधु हाथों में पात्र और मुखर वस्त्र धारण करनेवाले, मलीन वस्त्रवाले और अल्प भाषी होते है । और भी देखिए ! श्रीमाल पुराण के तहत्तर वें अध्याय का ३३ वां लोक इस प्रकार है ।
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" मुखे दधानो मुखपतिं विभ्रो दण्डकं करे । शिरसो मुण्डनं कृत्वा, कुक्षौ च कुंजिकां दधत् ॥ ३३ ॥ अर्थात् जैन मुनि मुखपर मुखवस्त्रिका बांधने वाले, वृद्धाव स्था होने से दण्ड धारण करनेवाले और शिर मुंडाकर कांख मेंघा ( जीवों की रक्षा के लिये एक ऊन का गुच्छा ) रखने वाले होते हैं । इस के अतिरिक्त मुख पर सुखवस्त्रिका बांधने का प्रमाण ' अवतार चित्र' में इस प्रकार लिखा है :छन्द पद्धरी नित कथा यज्ञ घातक निदान, धरि नयन मंदि अरिहंत ध्यान । सब श्रावक पोषादि वश साधि, मुखपट्टि रुद्ध अरंभ उपाधि || अर्थात् जैन मुनि प्रतिदिन कथा करनेवाले, पशुयज्ञों का