Book Title: Sachitra Mukh Vastrika Nirnaya
Author(s): Shankarmuni
Publisher: Shivchand Nemichand Kotecha Shivpuri

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Page 94
________________ [५४] मुखवस्त्रिका । जो मुँह से ली जाय तो प्राय. सरदी हो जाती है, स्वर बैठ जाता है, हवा के साथ धूल के कण श्वास लेने वाले के फेफडों में घुस जाते हैं और फेफडो को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं। पुसका प्रत्यक्ष प्रभाव विलायत के शहरों में तुरंत पढ़ता है,वहा पर बहुत कल कारखानों के कारण नवम्बर मास में बहुत ही फौग-पीली धूमस-होती है। उसमें वारीक बारीक काले धूल के कण होते है । जो मनुप्य इस धूल के कण-भरी हवा को मुंह स लेते हैं उनके थूक में वह देखने में पाती है। ऐसा अनर्थ न होने के लिए बहुतसी स्त्रियाँ जिन्हें नाक से श्वास लेने की श्रादव नहीं होती चेहरे पर जाली बाँधे रहती हैं । यह जाली चलनी का काम देती है। इसमें होकर जो हवा जाती है वह साफ जाती है। इस जाली को काममें पाये वाद देखा जाय तो उस में धूल के कण मिलते हैं। ऐसी ही चलनी परमात्माने हमारे नाक में रक्खी है। नाक से ली हुई हवा गरम होकर भीतर उतरती है। इस बात को ध्यान में रख कर प्रत्येक मनुग्य को नाक के द्वारा ही हवा लेना सीखना चाहिये । यह कुछ मुश्किल नहीं है। जिन्हें मुंह खुला रखने की श्रादत पड़ गई हो उन्हें मुंह पर पट्टी बाध कर रात में सोना चाहिये । इससे लाचार उन्हें नाक से ही श्वास लना पड़ेगा। वैद्यक की राह से भी श्रारोयन्ता के लिये भी मुख वांधना अच्छा माना है। परिशिष्ठ अब यह ग्रन्य समाप्त होगया है परन्तु मेरे जो अन्तिम उद्वार है वे भी में अपने विचार शील पाठकों पर प्रकट कर देना चाहता हूं। पाठकों ! और कामों में उच्छ्व लना विशेष हानि कर नहीं परन्तु धार्मिक उच्छृङ्खलता तो किसी प्रकार

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