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मुखवत्रिका।
करते थे । परन्तु इस भारत भूमि मे अनीश्वरवादी और उच्च इल धर्म नहीं ठहर सका । गौतम बुद्ध के सिद्धान्त कुछ ऊंचे थे परन्तु वे अनीश्वरवादी थे अत' अन्य देशों में घे भले ही अपने धर्म का झंडा गाड़ने में समर्थ हुए हो परन्तु भारत वर्ष में उनका झण्डा उखड़ गया। आज भारत में उनका अनुयायी शायद कोई हो।
इसीसे मैं कहता हूं कि धार्मिक ऊच्छड्सलता कभी किसी दशा में अच्छी नहीं है। सनातन जैन धर्म की नीव अहिंसा पर खड़ी है उसमें हिंसा का प्रचार करना नितान्त भूल और अदूर दार्शता है।
मेरे मन्दिर मार्गीय साधु महात्माओं सदगृहस्थो! श्राप लोग मुखवस्त्रिका को मुख पर नहीं बांधकर हाथ में रखने में चहुत बड़ी गलती कर रहे है। असंख्य अदृश्य प्राणियों की हत्या का दायित्व अपने ऊपर ले रहे है । कोई शास्त्र इसमें सहमत नहीं है फिर श्राप क्यों नहीं मानते हैं।
मैने एक तरह से नहीं बल्कि हर तरह से सिद्ध कर दिया है कि मुखवत्रिका को मुख पर ही वांधना चाहिए। मैंने युक्ति वाट शब्दार्थ, और शास्त्रों के निर्विवाद वीर वचन से सावित किया ! श्रापके ग्रन्थों से सावित किया !! अन्यान्य धर्मावलम्बियों के ग्रन्था से सावित किया । और सावित किया स्वास्थ्य की दृष्टि से । अर्थात् श्रायुर्वट और डाक्टरी पुस्तकों से इसको लाभ दायक सावित किया है।
कई कुतर्कवादियो का कथन है कि, नाक वायु सेवन का मार्ग है उसमें कूड़ा छार श्रादि न प्रवेश करजापं इसलिए कु. दरत ने उसमें बाल उगाए है । इसी प्रकार हानि की संभा. वना होती तो प्रकृति मह की पाड़ के लिए भी जरूर कोई चमड़े की पट्टी अथवा वालो की रचना करती।