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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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लेखकश्रीमान् शंकर मुनिजी
महाराज
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सचित्र मुख-वस्त्रिका-निर्णय
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प्रकाशक
श्रीमान् सेठ शिवचन्दजी नेमीचन्दजी कोटेचा जैन,
शिवपुरी
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प्रथमावृति १००० -
संवत् १९८७
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सूचनाजिस किसी भाई को इस पुस्तक की जरूरत हो वे नीचे है. लिखे पते पर आध आने का टिकिट भेज कर मंगा लेवें।
शिवचन्द अमोलखचन्द कोटेचा जैन;
मु. पो. शिवपुरी, गवालियर स्टेट. ETERATHAREKAR AT GAV - BALAPAN . 24-0
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श्री जैनोदय पुस्तक प्रकाशक
समिति, रतलाम.
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जन्म दाता:श्रीमान् प्रसिद्ध वक्ता पण्डित मुनि श्री १००८ श्री
चौथनलजी महाराज
स्तम्भ दानवीर रायबहादुर श्रीमान् सेठ कुन्दनमलजी
लालचन्दजी साहब, ब्यावर दानवीर श्रीमान् सेठ सरूपचन्दजी भागचन्दजी
साहेब ललवाणी, कलमसरा। " श्रीमान् सेठ पुननचन्दजी चुन्नीलालजी कटारिया
न्यायडोंगरी
सरक्षक र श्रीमान् सेठ श्रीमलजी लालचंदजी मु० गुलेजगढ़ ।
रक्षक श्रीमान् सेठ गणेशमलजी गुलावचंदजी मु० जेना. * श्रीमती पिस्तावाई लोहामंडी श्रीसंघ मार्फत्-सेठमाणकलालजी नथमलजी राजनांदगांव
सहायक * श्रीमान् सेठ मोतीलालजी रामचन्दजी मु० नसीराबाद
,, बछराजजी रूपचंजी संगवी मु० खेड़ा गांव **** ******* ****** *
श्रागरा
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श्रीमान् सेठ इन्दरचंदजी बछराजजी रांका वागली
, वक्तावरमलजी रतनचंदजी पो० भड़गांव , चांदमलजी सूरजमलजी मु० लासूर , चुन्नीलालजी तखतमलजी मु० घोटी बाजार , जुवारमलजी हजारीमलजी मु० खिलचीपुर में ,, रामलालजी सुखलालजी चोरडियामु वरोरा ,, जीतमलजी जीवनचंदजी मु० राज नांदगांव ,, लखमीचंदजी पुनमचंदजी नाहर चालीसगांव , वंशीलालजी गुलाबचंदजी न्यायडोंगरी , चुन्नीलालजी भीमराजजी , लखमीचंदजी फोजमलजी , लालचंदजी हरखचन्दजी रोहिणी"
कचरदाशजी हरष संदजी मु० घोटी " सोभाचंदजी दलीचंदजी शेलगांव " रायचंदजी लालचंदजी मनमाड " नथमलजी रतनचंदजी "
" नरायनदासजी पुनमचंदजी" " " लादूरामजी मनोहरमजी, इगतपुरी " " सरूपचंदजी भूरजी, वम्ब कोपर गांव
मेम्बर
श्रीमान् सेट वखतावरमलजी वृद्धीचन्दजी मु० व्यावर
" लालचन्दजी मोतीलालजी मु० अंजनखेड़ा , " ताराचन्दजी वेचरदासजी मु० धामनगाव , , चौथमलजी पूरनमलजी मु०चेलदे " , राजमलजी नन्दलालजी मु० वरणगांव
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" पत्रालालजी मोतीलालजी मु० सिवनी . , , सुखराजजी जेठमलजी मु० दारवा
" डूंगरसिंहजी रतनचदजी मु० किशनगढ़ * ,,, चुन्नीलालजी फूलचन्दजी मु० इन्दरठाणा
__, पूरखचंदजी हस्तीमलजीगुलेछा मुख्छुईखदान __हेमराजजी जसराजजी संचती मु० वरोरा
,, रावतमलजी चोरडिया मु० वरोरा ,, चम्पालालजी लक्ष्मीचन्दजी वोहरा मु०वरोरा ,, छीतरमलजी गुलाबचन्दजी वोहरा मु०वरोरा , जीवराजजी जसराजजी गोटी मु० ब्राञ्च ,, पीरूदानजी हीराचन्दजी चंडालिया मु०वरोरा , चुन्नीलालजी मोतीलालजी संगवी खेड़ गांव ., गोविन्दरामजी रूपचंदजी संगवी खड़ गांव , ताराचंदजी धीरदीचंदजी, वागली । " कपुरचंदजी हंसराजजी, न्याय डोंगरी " रतनचंदजी चंदूलालजी, न्याय डोंगरी , ऊंकारलालजी विठ्ठलजी, धार , हीराचंदजी गुलावचंदजी चालीसगांव ,,पेमराजजी कन्हैयालालजी उम्बर खेड़ा ,, चांदमलजी मुलतानमलजी लोढ़ा मनमाड , भीकमचंदजी केवलचदजी मनमाड , गुलावचदजी कचरदासजी भंडारी मनमाड , छगनीरामजी पेमराजी, वारी
, खींवराजजी राजमलजी मनमाड ,, नवलखाजी दीपचंदजी इन्दोर , , रायसाहेब किसनदासजी नंदरामजी येवला
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लेखकश्रीमान् शंकर मुनिजी
महाराज .
सचित्र मुख-वस्त्रिका-निर्णय
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प्रकाशकश्रीमान् सेठ शिवचन्दजी नेमीचन्दजी कोटेचा जैन
शिवपुरी
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प्रकाशक:
श्रीमान् सेठ शिवचन्दजी नेमीचन्दजी कोटेचा जैन
शिवपुरी
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मुद्रक-जगदीशचन्द्र शर्मा "विशारद" मेनेजर-श्री जैनोदय प्रिंटिंग प्रेस, रतलाम.
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श्रीमान् सेठ शिवचढजी साहेब,
शिवपुरी
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समर्पण
श्रीमान् ! - परम पवित्र पूज्यपाद ! गुरुवर्य ! जगत वल्लभ ! जैन धर्म के सुप्रसिद्ध वक्ता मुनि श्री १००८ श्री "चौथमलजी" महागज के कृपा कटाक्ष से मुझे सम्यक् ज्ञान दर्शन चारित्र प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । अतएव गुरु महाराज के चारु पाद पद्म में यह सामान्य सी भेट समर्पण करता हूं । मुझे आशा है कि श्रीमान् इसे अवश्य अपनायंगे, अथवा मेरे मनो बल साहस को बढा कर श्री जिन शासन की सेवा करने में चेष्टित कर कृत कृत्य करेंगे, और मुझे निजात्म स्वरूप को चितवन करने का शुभ आशीर्वाद प्रदान करेंगे,
भवदीय-- पाद-पद्मयो रनुचर
शङ्कर मुनि.
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मात्रा
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भूमिका
-rootooप्रिय पाठकों ! श्राज कल हमारे जैन समाज के कतिपय सज्जन-गण इस प्रकार कथन करते हैं, कि जैन मुनियों के मुख पर-वस्त्रिका बांधने का रिवाज यह आधुनिक समय से चला है। इस प्रकार हमारे उन बंधुओंका कथन करना सर्वथा मिथ्या है। क्योंकि मुख पर मुख-वस्त्रिका बांधने का रिवाज अाधुनिक समय से नहीं, किन्तु सनातन से चला आता है। हां हाथ में मुख-वस्त्रिका धारण करने वाले रिवाज के लिये प्राधुनिक समय से चला ऐसा कथन करें, तो उनका कथन अक्षरशःसत्य हो सकता है ! क्योंकि यह रिवाज द्वादश वर्षीय दुष्काल के जमाने में सुधा पीड़ित कंगले लोक श्राहारादि छिनने लग पड़े, तब इस दुसह्य-सुधा परिषद से पीड़ित होते हुए कतिपय उदरार्थी, मुनि नामधारियों ने अहंत प्रभू प्रदशित भेप में अतीव कप्ट समझ कर मुख से मुख-वत्रिका खोल के हाथ में धारण की। वहीं से यह नूतन (नवीन)रिवाज प्रादुर्भूत हुआ, आगे से नहीं ! यदि इसके लिये आधुनिक कथन करते तो हमारे भाइयों का कहना युक्ति युक्त हो सकता। किन्तु शास्त्र विहित मुख-चस्त्रिका मुख पर वांधने की सच्ची सनातनीय जैन प्रणाली को अाधुनिक, समय से प्रादुर्भूत होने वाली नवीन प्रणाली को प्राचीन दिखलाना यह उन महानुभावों की अनभिज्ञता नहीं तो और क्या ? जो साक्षरी पंडित हैं वे तो मुख पर वांधने वाली ही प्रणाली को प्राचीन समझ ते हैं। और शास्त्रोक्त विधि विहित मुख-पत्रिका को मुख पर वांध के धर्मानुष्टानादि क्रियाओं का पालनभी करते हैं। नवीन प्रणाली के प्रचारको में इतना तो अवश्य देखने में आता हैं,
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( २ ) कि व्याख्यानादि देते समय, अवश्य मुस-वस्त्रिका मुख पर बांध के देते है। यह एक सदा सर्वदा मुख-वस्त्रिका मुख पर बांधी जाने वाली प्राचीन प्रणाली की सबूती के लिये ही हमारे मूत्ति पूजक समाज के नेताओं ने उसका कुछ अंश में अन करण करते हुए अद्यावधि पर्यन्त चले श्रा रहे है। इस प्रा. चीन प्रणाली को संयम धर्म का साधन समझ के ही पग्यास श्री धर्मविजयजी, विजयनीतिजीसूरि, विजयसिद्धिजी सूरि श्रादि महानुभाव व्याख्यान देते समय मरसपत्ती मुस पर बांध के देते थे। सरतर गच्छी कृपाचन्द्रसूरि को मुख पर मुख वास्त्रका बांधकर व्याख्यान देते सं०१६७८के साल रतलाम के चातुर्मास में मैने स्वय श्रांख से देखा है । इसी प्रकार अंचलगच्छ वासी यति लोग व्याख्यान देत समय मुख पर मुख वस्त्रिका बांधते हैं। तथा पापचलगच्छ वानी धावक लोक प्रतिक्रमण करते समय मुरज परित्रका मुग पर वाघ के करते हैं । इस पर से हमारे कतिपय जैन वधु, जो कि प्राचीन प्रणाली को आधुनिक बतला रहे हैं। वे श्रव विचार कर सकते है, कि यदि मुग्य-चरित्रका वांधने की प्रणाली अर्या चीन होती तो, उक्त महानुभाव कुछ समय के लिये भी कदापि अनुकरण नहीं करने । किन्तु प्राचीन होने ही के कार गग अद्यावधि पर्यन्त इसका अनुकरण करते हुए चले आ रहे है। पूर्व काल में सबी गच्छवामी यति लोग व्याग्यान देने तय मुग पर मुग्य-वस्त्रिका बाघ के देते थे । उस विपय में। 'सन्यार्थप्रकाश के रचयिता स्वामी दयानन्दजी हादशम ' मृन्नास फी १०-१५०पर लिसंत है, कि " जती श्रादि भी जब पुस्तक बांचते हैं तभी मुग्न पर पट्टी बाधते है। इस म्वामीजी के प्रमाण से निपिंवाद सिद्ध है, कि पूर्व काल में गग्यान के समय मुग पे मुन-पत्रिका संघ के व्यायान
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( ३ )
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देते थे । विक्रमीय सं० १९३१-३२ तक तो सभी गच्छवासी यति सवेगी लोग व्याख्यान देते, तब सुख - वस्त्रिका मुख पे बान्ध कर देते थे, वर्तमान काल में भी कतिपय गच्छवासी यति, संवेगी मुखपत्ती सुखपे बांध के देते हैं । उनमें से कितक के नाम तो ऊपर लिख चुके है । पाठकों ! आपको एक यह बात भी यहां पर समझा देना समीचीन समझता हूँ, कि सतत मुख वस्त्रिका मुख पै बांधने वालों का, और व्याख्यानादि देते समय वाधने वालों इन दोनों का मन्तव्य निर्सन्देह वायु कायिक और तदाश्रित त्रसजीवो की रक्षा करने का है । न की और कोई, दोनों ने इस विधि को संयम का मुख्य साधन माना है । और दोनों मुख पर बांधना आगमानुकुल मानते हैं । तो फिर इस प्रश्न पर वाद विवाद करना, कि व्याखनादि देते वक्त कुछ समय के लिये बांधना समीचीन और सतत बांधना समीचीन, यह सर्वथा व्यर्थ है । क्योंकि संयम के साधनों का अल्प या अधिक समय तक उपयोग किया जाय तो कदापि अनुचित नहीं है । जिनागमानूकुल उचित क्रियाओं का उचित ही फल होता है अनुचित फल कदापि नहीं हो सकता । जिस व्यक्ति ने थोड़ी देर के लिये मुखपत्ती मुख पै बान्ध के धर्म क्रियाएं की उस को थोडा लाभ और जिसने विशेष काल क लिये बान्ध के यत्नाचार का पालन किया तो उसको विशेप लाभ की प्राप्ति होती है । कुछ समय के लिये बांधना उचित मानते हैं तो सतत वांधने वालों को भी किसी हालत में आप बुरा नहीं कह सकते । साधारण मनुष्य की तो वात ही क्या ? किन्तु बड़े २ पढे लिखे प्रमाद के चक्कर में गिर जाते हैं । इसी लिये प्रमाद के प्रवेश करने के फाटक को ही सतत बन्द कर रखने में आप को हानि ही क्या है । जैन
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धर्म के सभी सम्प्रदाय में इस विषय पर तो किसी भी व्यक्ति का मत भेद नहीं है, कि प्रमाद (प्रमत्तयोग) के कारण ही हिसा होती है। और जहां २ हिंसा है, वहाँ २ पाप कमा का वन्ध और संसार वृद्धि भी है। पाप वृद्धि और संसार भ्रमण का खास कारण प्रमत्तयोग ही को मानागया है। इसी कारण को मुख्यता में ग्रहण कर श्रीवीर परमात्माने मुमत मुनियों को, इस प्रमाद पिशाच से बचाने के लिये ही मुख वत्रिका की प्रतिपादना की, वह भी प्रतिपादना मुख्य एक अंग को ग्रहण कर की कि, उस अझ के व्यतिरिक्त अन्य अंग पर धारण कर ही नहीं सकते। मुख पर वान्धने की आज्ञा भी उसी मुखपत्ती शब्द के अन्तर गत रही हुई है। कृपया निम्न लिखित मुखपत्ती शब्द की परिभापा को ध्यान देकर पढ़िये ! "सुख पोतते वन्धते सततं अनेन सा मुखपोतिका " अर्थात् जिस करके सतत (निरन्तर ) मुख को चान्धा जाए, उसे मुखपोतिका कहते है । सतत शब्द ग्रहण करने का खास कारण यह है, कि मुनि को आहारादि याचना करते समय च शिप्यादिकों को सूत्रादि पठन पाठन करने आदि के लिये श्राज्ञा देने को हर वक्त बोलना पड़ता है । एवं शिप्यों को वाचनादि देने का तथा श्रावक, श्राविकाओं को त्याग, नियम करवाने अथवा मंगलिक उपदेश श्रादेश व्याख्यानादि देने का काम पड़ता है। उस समय मुख की यत्ला की तरफ ध्यान रखें या, मंगलिक श्रादि सुनाने की तरफ एक समय में दोनों
ओर उपयोग रह सकता नहीं । परमात्माने एक समय में एक ही उपयोग फरमाया है। जिस समय मुहकी यत्ना की तरफ ध्यान रहेगा, उस समय व्याश्यानादि की ओर ध्यान नहीं रहेगा और जव व्याख्यानादि की तरफ स्याल रहेगा उस
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समय मुंह की यत्ना की तरफ ध्यान नहीं रहेगा। इसी ही कारण जैन मुनि मुख-वस्त्रिका मुख पर सतत वांधे रहते हैं। नवीन प्रणाली के चलाने वालों ने भी एक समय में दो उपयोग नहीं,इसी वीर वाक्य पर ध्यान देकर व्याख्यानादि देते समय मुखपत्ती मुख पर बान्ध कर देना,ऐसा प्रत्येक स्थल पर अपने रचित ग्रन्थों, टीका, भाप्य, नियुक्ति में उल्लेख किया हैं। जो लोग अपने पूर्वाचायों की उक्त श्राशा का पालन नहीं करते हुए मुखपत्ती को हाथ में ही रख कर व्याख्यानादि देते हैं। उस समय मुखपत्ती वाला उन का हाथ कभी बिलास भर, कभी हाथ भर दूर चला जाता है । जब व्याख्याता दोनों हाथों को फैलाता है, उस समय मुखपत्ती मुंह से कितनी दूर पर चली जाती है । जिस समय मुखपत्ती वाले हाथ को उपदेश दाता नीचे की ओर ले जाता है । उस समय कटि से नीचे घुटने के पास मुखपत्ती चली जाती है। और उपदेशक जी हृदय को दया विहीन कर विना मुखपत्ती के खुल्ले मह से बेखटके बोलते हुए चले जाते है । भवभीरू दयाव-हृदयी पुरुपों के जरिये किसी प्राणी का यत्किचित भी दिल दुःख जाता है तो वे उसका सारा दिन भर पश्चाताप करते रहते है। किन्तु, हमारे नवीन प्रणाली के प्रचारक मुनि नामधारी अहिंसा के उपासकों के हृदय में उन एक वक्त खुल्ले मह बोलने पर मरजाने वाले अपाहिज असंख्य वायु-कायिक जीवों पर तनिक भी दया प्राप्त नहीं होती। अफसोस ? अफसोस !!
जिनागम विहित प्राचीन प्रणाली की उत्थापना कर हाथ में मुखपत्ती धारण करने की नवीन प्रणाली के जन्म दाताओं को नवीन योजना निकालते समय तो तनिक भी विचार नहीं हुवा, किन्तु अव उन को विचार उत्पन्न होने लगा कि उपदेश देते वक्त मुह कीयत्ना की ओर ध्यान रखें कि देशना की तरफ,
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क्योकि एक ही समय में दोनो तरफ उपयोग रह सकता नहीं ! श्रव क्या करना चाहिये, मुखपत्ती में धागा लगा कर मुंह पर वान्धना तो निषेध कर चुके हैं और उसी विधि को पुन. अंगी कार करेंगे तो जो धागा लगाकर मुख पर वांधने वाले हैं वे अपनी बड़ी भारी भद्द उडावगे। ऐसा विचार कर, एक और नवीन योजना उन लोगोंने यह निकाली कि श्रष्ट पड़ वाली मुंहपत्ती के ऊपर के दोना कोन पर कपड़े की कसे लगाकर, नाथ वावों की तरह दोनों कानों को वीच में से फड़वा कर उन छेद्रों में से कसे निकाल के कानों के पीछ गाठ लगाकर वांधने लगे। यह प्रणाली करीब विक्रमीय सं १९२३-२४ तक तो चलती रही, किन्तु कान फड़वाने में बहुत कष्ट होने के कारण यह प्रणाली थोड़े ही काल में प्रलय हो गई।
कुछ दिनों तक कान के नीचे की लो जो गृहवास की छेदन की हुई उस में नीमश्रादि की सीक डाल के छेदों को कस डालने योग बनाकर उन के अन्दर से कसे निकाल के कान पीछे गांठ लगाकर बान्धने लगे । यह रिवाज भी विशेष काल नहीं चला। थोड़े ही काल में सूर्य की भाति श्रस्त होगया । वाद कुछ दिनों तक दोनों कसे कानों के लपेट कर मुखपत्ती मुख पर बांधने लगे । कतिपय यति लोग कसे को कान ऊपर से गुद्दी के पीछे लेजाकर गाठ लगा के वांधने लगे। कुछ यति और सम्वेगी लोक मुखपत्ती को त्रिकोनी कर नाक और मुंह दोनों के ऊपर से लेकर गुद्दी पीछे दोनों कोने को लेजाकर गांठ लगा कर वाघने लगे । मुखपत्ती की ऐसी परिस्थिति में ही निम्न लिखित गाथा का प्रतिपादन हुवा हो ऐसा अनुमान प्रमान से मात होताहै। उक्तंच-" सम्पाइम रयरेणु, परमज्झण ठावयइ मुहपोति ।। नासं मुहं च बन्धह, तीएव सहिं पमझतो ॥"
श्रीप्रकर रत्नाकर भा०३ पं० १४२
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' इसी प्रकार येही गाथा " श्रोघनिर्युक्ति” की चूर्णि में भी उल्लेखित हैः- इस विधि के साथ मुखपत्ती वान्धने की प्रणाली आज भी कतिपय गच्छों में चली आती है | विक्रमीय स० १६३१-३२ तक तो करीव २ सभी गच्छ वासी यति, सम्वेगी लोग सुखपती मुख पर बाध कर व्याख्यानादि देते थे । वाद में शैने २ पुराने यति सम्वेगी मरते गए त्यों त्यों मुखपत्ती का बांधना भी यति सम्वेगियों में कम होता गया । और ज्यों ज्यों नई रोशनी के यति सम्वेगी पैदा होते गए,
त्यो प्राचीन प्रणाली की निषेधना करते गए । वैसे ही इन लोगों में मुखपत्ती बाधना तो दर किनारे रहा। किन्तु वाज २ यति सम्वेगियों ने पास में रखना भी छोड़ दिया । हमारे मूर्त्ति पूजक भाईयों के गुरुवर्य 'शतपदी' के लेखक उक्त ग्रन्थ के पृ० ९५६ पर क्या लिखते है उक्तंच
" मोपती विना मोंमां मछर, मखी, पाणीना विंदुके धूल पढ़े छे, देशना देतां के छींकतां मोना गरम वायु बड़े बाहरना वायुनी विराधना थाय छे । तथा आपणी थूको ऊड़ीने बीजाने स्पर्शेछे”देखिये! मुख वस्त्रिका मुख पर न बांधने वालों के मुख में हड्डी, विष्टा श्रादि अशुद्ध वस्तु पर बैठी हुई मक्षिकादि उड़ कर मुंह में घुस जाती है । जहा पर पानी के फुलारे छूट रहे हों और उस के नजदीक होकर जाने का काम पड़े तथा वर्षात के दिनों में क पानी की वृन्दे मुँह में गिरजाती है । देशना देते या छींकते समय मुंह की गरम वायु द्वारा बाह्य सचित वायु कायिक जीवों की विराधना होती है । तथा अपने मुह की धूक उछल कर शास्त्र और गुरु श्रादि के ऊपर पड़ने से महान् श्राशातना लगती है । यदि हमारे मूर्ति पूजक बन्धु साक्षरी पने का दावा रखते हैं तो अपने पूर्वजों के उक्त लेख पर विचार करें और मुख- वस्त्रिका मुख पर बांध के सच्ची सनातनीय जैन प्रणाली
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को स्वीकृत करें । विना इस विधि के स्वीकृत किये आपके मुंह की गरम वास्प द्वारा वाह्य सचित वायु कायिक जीवों की तथा तदाश्रत त्रस जीव उड के मुह में गिर कर मर जाने वाले जीवों की घिराधना से आप हरगीज वच नहीं सकते। खेर ऐसी बात तो अनेको है, सभी बातों को लिखी जाए तो एक बड़ा भारी ग्रन्थ तैयार हो जाए। किन्तु मुझ तो पाठको को जो खास मुद्दे की बात लिख दिखाना है, उसी लाइन पर श्राना है। वे ये हैं कि आज कल मूर्ति पूजक भाईयों की तरफ से अनेक ग्रंथ छप कर तैयार हो के नवीन साहित्य के रूप में वाहार प्रगट हो रहे हैं उनको देख २ मनुष्यों के दिलों में वडा भारी विचारों का परिवर्तन होरहा है। उन परिवर्तन रूप विचारों की तरहिणी की तरङ्गों में गोते मारते हुए वे कतिपय सज्जन गणों में से कतिपय तो कहते हैं कि मुखपत्ती का मुख पर वांधना यह सनातन से चला पाता है, तो कोइ कहता है कि आधुनिक समय से चला, इस प्रकार के भ्रमात्पादक प्रश्नों पर विचार कर मेरे परम पूजनीय गुरु वर्दी,धर्माचार्य जगत् वल्लभ जैन धर्म के सुप्रसिद्ध चला १००८ श्री चौथमल जी महाराज की श्राशा से विक्रमाद १६७२ के साल पालनपुर के चातुर्मास से इस विषय को मैंने अपने हाथ में लिया और श्राज दिन विक्रमीय सं १९८६ के फाल्गुणी पूर्णिमा तक के परिश्रम द्वारा पूर्वाचायों के रचित प्राचीन साहित्य ग्रन्थों के अवलोकन करने पर मुख-वत्रिका मुख पर वांधने विषयक प्राचीन चित्र और तद चिपयक प्रमाण जो कुछ भी मुझे उपलब्ध हुए हैं, उन को 'सचित्र मुख-पत्रिका निर्णय, के रूप में जो सजन गण मुख-वस्त्रिका मुख पे वाधने की सच्ची सनातनी जैन प्रणाली क्या है इस खोज में है, उन महानुभावों
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के सन्मुख रखता हुश्रा श्राशा करता हूँ, कि वे इसे पढ व हाथ में मुँहपत्ति रखने की शास्त्र विरुद्ध श्राधुनिक समय प्रचलित होने वाली भूठी प्रणाली को परित्याग कर जिनार मानूकुल मुँहपत्ति मुख पे बांध ने की सच्ची सनातनी जै प्रणाली को स्वीकार कर भगवदाज्ञा के श्राराधिक बने । व यही मेरी हार्दिक भावना है। प्रोम् सिद्धा सिद्धिं मम दिसं
ले० चतुर्विधि श्री जैन संघ का दास सौधर्म गच्छीय
शंकर-मुनि
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प्रकाशक का परिचयप्रिय महानुभाव ! "ज्ञानमल केशरीचन्द" इस फर्म के वर्तमान काल में संचालक सेठ शिवचन्दजी एवं सेठ नेमीचंदजी है। श्राप ओसवाल जातीय श्वे० स्था० श्रमणोपासक सज्जन जन है। श्रापका श्रादि निवास स्थान, मेडले का है। यहां शिवपुरी में इस फर्म को स्थापित हुए करीव ६० वर्ष हुए होंगे । इस के मुख्य संस्थापक सेठ ज्ञानमलजी है। आपके पश्चात इस फम की बहुत कुछ उन्नति श्राप के पुत्र सेठ केश. रीचन्दजी ने की । श्राप के बाद श्राप के सुपुत्र सेठ लालचंदजी हुए । श्राप के एक लघु भ्राता मूलचन्दजी साहव थोड़ी ही अवस्था में स्वर्ग वासी हो चुके थे । श्राप के हाथों से भी इस फर्म की बहुत ही उन्नति हुई । यह फर्म यहां के समाज में अच्छी मानी जाती है। इस के वर्तमान मालिक सेठ लालचन्दजी के सुपुत्र हैं। सेठ नेमीचन्दजी स्थानीय ऑनरेरी मेजिस्ट्रेट है। तथा बोर्ड साहुकारान और कोआपरेटिव बैंक के मेम्बर हैं । सेठ शिवचन्दजी वड़े सरल और मित भापी हैं । दर वार में आपका अच्छा सम्मान है। आपको कई वार दरवार से पोशाकें इनाम मिली हैं। आप का ध्यान सदा सर्वदा दान धर्म की ओर विशेष तर रहता है । आपने ब्रह्मचर्याश्रम उदयपुर और आगरा अनाथालय में अच्छी सहायता प्रदान की है । आप का व्यापारिक परिचय इस प्रकार है। आपकी उक्त फर्म पर हुण्डी चिट्ठी तथा सराफी और कमीशन एजेंसी का काम भी होता है। आप की वम्बई, कलकत्ता आगरा आदि स्थानों पर एजेंसियां है। सं० १८९३ में शिवपुरी की स्थापना श्रावण शुक्ला पञ्चमी शनिवार पुण्य नक्षत्र के दिन शुभ मुहूर्त
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[ २ ] __ में हुई । इसी शुभ मुहूर्त में आपने भी अपने निवास स्थान की
नींव लगाई, वहीं से श्राप अपनी श्रार्थिक स्थितिका बल बढ़ाते हुए, व्यापारी वर्ग में अग्रगण्य वने । श्रीमान् सेठ शिव चन्दजी साहब के अमालख चन्दजी नाम के एक पुत्र और दो प्रपोत्र, इसी प्रकार श्रीमान् सेठ नेमीचन्दजी के दो पुत्र और तीन बालिकाएं हैं। जैसे श्राप संसारी व व्यापारी वर्ग में अग्रगण्य है वैसे ही आप श्वे० स्था० श्रमणोपासक समाज में भी अग्रगण्य है । उक्त समाज के प्राचार और विचारों से तथा जैन धर्म के पूरे २ मर्मभ है । आपने अपने लिये अथवा अन्य भाईयों के धर्म ध्यानादि करने के लिये अपने निवासस्थान के निकट ही स्वकीय एक पोपधशाला भी स्थापन कर रखी है। आपके छोटे मोटे सभी घर भर वालों को धर्म की बहुत ही पछी लागणी है। आपने इस पुस्तक के व्यतिरिक्त और अन्य भी कई जैन धर्म सम्बन्धी पुस्तकें स्वकीय द्रव्य से छपवा कर अमूल्य वितरण कर अपनी धार्मिक उदारता का परिचय दिया है। अतः श्रीमानों से भी सादर सप्रेम नम्र निवेदन है कि उन धर्म प्रेमी सेठजी के अनुकरणीय कर्तव्य का अनुकरण करते हुए पाई हई लक्ष्मी का मानादिक के प्रचारार्थ सदुपयोग करेंगे।
ॐ शांति ! शांति !! शांति !!! |
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सचित्र मुख वस्त्रिका निर्णय.
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यह फोन श्री श्रन्त प्रभु प्रदर्शित श्वेतावर जैन मुनियों के
! वेष विन्यास का सबूत दिलाने वाला, केवल परिचय के लिये # दिया गया है.
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中興中學旁。
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विराजते मुखाम्भोजे, साधूनां मुखवत्रिका रक्षिका सूक्ष्म जन्तूनां, दुरिच्छेद शास्त्रका,, व्याख्या-भो पाठकाः सनातनीय श्वेताम्बरीय जैन यतीनां साधूनां मुखाम्भोजे वदन-कमले, मुखवस्त्रिका विराजते शोभते कीदृशा, मुखवस्त्रिका ? उक्नं च, एगविसंगुलायाय, सोलसंगुल विच्छिरणोः चउकार संजुयाय, मुहपोती एरिसा होई॥ अर्थात् एकविंशत्यंगुला परिमित दीर्घा,षोड़शांगुला परिमितविस्तीर्णाच वतुराकारसंयुक्ता, एतादृशा रूपा मुखवस्त्रिका चारु दवरकेन सह मुखे वध्यमाना विराजते-शोभते, पुनः कथं भूता? मुख वस्त्रिका बाह्य दृष्ट्या ऽ दृष्ट सूक्ष्म जन्तूनां-जीवानाम् रक्षिका पालयित्री । पुनः कथं भूता? दुरितच्छेद शत्रिका, पाप नाशने पटीयसी, श्रायुध रूपाऽस्ति ।।
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मेरे विचार।
आज कल लोगों की अभिरुचि समाज सुधार की ओर प्रवलता से बढ़ी हुई है। और पुस्तकें भी सामाजिक विषय की ही विशेष लिखी जा रही हैं, परन्तु समाज सुधार का प्रारंभ कहाँ से होता है इसको बहुत थोड़े लोग जानते है । और इसीलिए उन्हें सफलता भी नहीं मिलती है।
संसार में वैद्यों की कमी नहीं है परन्तु अच्छा निदान करने वाले चिकित्सक बहुत थोड़े हैं। दवा देदेना जितना सामान्य और अदना काम है उतना रोग की परीक्षा करना नहीं। और गेग की परीक्षा के विना ओषधी सेवन कराना रोग को घटाना नहीं, प्रत्युत वढाना है।
आज कल. क अधिकांश वैद्यों की जैसी दशा है, ठीक वैसी ही दशा हमारे समाज सुधारको की भी हो रही है। उन्ह भी उन वैद्यों की तरह यह नहीं मालूम है कि, वे किस मर्ज की दवा कर रहे है।
वन्धुओं ! मैं बतलाता हूँ कि समाज सुधार का समारंभ कहा से होना चाहिए । समाज सुधार का प्रारंभ धार्मिक जगत् से किया जावे । धार्मिक उन्नति किए विना सामाजिक उन्नति हो ही नहीं सकती । धार्मिक विचारों को एक और रख कर सामाजिक उन्नति की आशा करना दुराशा मात्र है। धार्मिक जीवन के विचार सामाजिक जीवन कृपण जीवन है।
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[२]
मुखवास्त्रिका ।
यदि सामाजिक उन्नति की भाति लोग धार्मिक उन्नति में लगजाएं, तो समाज सुधार अपने आप हो जा सकता है ।
भद्र पुरुपों । यह वीर वसुंधरा, यह पुण्य क्षेत्र धर्म की रंग भूमि है। अन्य देशों के अधिवासी भले और किसी तरह अपनी उन्नति करलें, परन्तु धर्म प्राण भारत वासी धर्म में ही अपनी उन्नति कर सकते है । क्योंकि यहां के जल वायु से पले हुए पुरुषों को प्रकृति सव से पहले धर्म का ही उपदेश करती है।
कालान्तर से मेरे हृद्धाम में यह भावना उठी थी कि, सम्वा समाज सुधार कब और कैसे हो सकता है ? उस का प्रशस्त राज मार्ग कौनसा है ? तव स्वत ही इन विचारों का प्रादुर्भाव हुआ कि, "लोगों को धार्मिक उन्नति के पथ पर अग्रसर किए जावें ! धर्म के तत्व बतला कर उन के सूक्ष्म रहस्यों का उद्घाटन किया जाव' और उन की मार्मिक विवेचना द्वारा उसी में समाज की भलाई और उन्नति बतलाई जावे !!' सो इस के लिए धार्मिक पुस्तकें लिखी जाकर पाठकों के सामने रखना ही एक अच्छा उपाय हे यही सोच कर मैंने इस में हाथ डाला है।
सब से प्रथम मेरीकृति पाठकों के सन्मुख यही मुखवस्त्रिका निर्णय, रख रहा है। क्योंकि मुग्नवास्त्रिका के सम्बन्ध में लोगों को बहुत कुछ सन्दह और गलतफहमी है। और मन्दिरमागी साधु महात्माओं को भी इसका मुँहपर वाधने में बहुत वाद विवाद और हटाग्रह है।
में इसमें सबसे प्रथम यह बतलाऊँगा कि यह मुखवस्त्रिका असल में है क्या पदार्थ, और इस शब्द का क्या अर्थ है।
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मुखवस्त्रिका |
[ ३ ]
ओर इस के पीछे, इसकी आवश्यकता और लगाने का कारण बतलाऊँगा, और साथ यह भी बतलाऊँगा कि, इसका प्रचार क व से हुआ। और कौन कौन लोग इसको मानते हैं । इसके पीछे शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यह सिद्ध करूगा कि इसको हाथ में रखना चाहिये अथवा मुॅह पर बंधी रखना और सव के अंत में हिंसा निवृति के अतिरिक्त स्वास्थ्य की दृष्टि से इसके शारीरिक लाभ भी बतलाऊंगा । "
यह पुस्तक मैंने किसी वाद विवाद अथवा अपना पाण्डित्य दिखाने की दृष्टि से नहीं लिखी है, वल्के पक्षपात शून्य हो कर अपने विचारों मुश्राफिक सच्ची और शास्त्रीय विवेचना की है।
मुखवस्त्रिका का क्या अर्थ है और वह है क्या पदार्थ | मुखवास्त्रिका का अर्थ है ' मुख का वस्त्र' मुँहका कपड़ा अर्थात् मुँह पर बाधने का वस्त्र । श्रोर मुखवस्त्रिका शब्द शिरोवेष्टन ( पगड़ी ) सिरपेच, अंगरक्षिका, ( अगरखी) और पदरक्षिका, ( पगरखी ) की भांति योगिक शब्द है । अर्थात् सार्थक शब्दों मैं से है ।
जैसे शिर पर लपेटी जाने वाली ( पगडी ) का नाम शिरो वेन, अंग की रक्षा करने वाली का नाम अंग रक्षिका और पद की रक्षा करने वाली का नाम पदरक्षिका पड़ा है । और उम्र ही प्रकार मुँह पर बांधने वाली का नाम मुखवस्त्रिका पड़ा है। और इस ही लिए मुखवस्त्रिका को योगिक शब्द कहा है |
इस शब्द का अर्थ इतना वोधगम्य और सरल है कि, सामान्य पढा लिखा मनुष्य भी भली प्रकार समझ सकता
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__ [४]
मुखवस्त्रिका ।
हे। ऐसी दशा में इसके अर्थ की इससे ज्यादह व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है।
अव रही बात यह कि "क्या पदार्थ" सो यह वह पदार्थ है कि जो जैन साम्प्रदायिक साधु महात्माओं, मुनि महाराजा
ओं, और श्रावक श्राविकाओं के मुंह पर वन्धती है। और जिस को मुंहपत्ति (मुखवस्निका ) वोलते हैं।
श्रावक श्राविकाऍ इसको हर समय मुंहपर बंधी नहीं रखते है। सामायिक (एक प्रकारका श्रारम चिन्तवन) पौपध ( सारे दिन औ भर धर्म स्थानक में रहकर प्रभु स्मरग) के समय । परन्तु सन्त एवम् मुनियों के मुंहपर यह हर समय बंधी रहती है।
यह मुखवास्त्रिका दया के प्रचुर धनकी साकेतिर, कीर्ति ध्वजा है। तपस्वियों के तप साम्राज्य का राज्य चिन्ह है। अहिंसा के अकुपार का फेन है । समदर्शिता एवम् साम्यवाद का शृंगार है। भावी जीवन के सुख सदन की ताली है। जीव हिंसा निवृत्ति का सुदृढ कपाट है। धर्म के श्राजा पत्र पर लगान की रजत मुद्रिका है। ममत्व मंजूपा के कपाट की यंत्रिका ( ताला) है, और मनुप्य कर्नव्य की महिमा है। श्राशा है पाठक इसका परिचय पा गए होंगे। मुख बस्त्रिका की आवश्यकता और लगाने का कारण ।
जो लोग प्राणी मात्र पर दया रखना चाहते हैं जिन्होंने दया पालन अपनी टन्द्रिय वृत्ति बनाली है। उन लोगों को
प्ट और माम मारियों की रक्षा या नहीं करना चा.
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मुखवत्रिका ।
हिए! और सो भी इस अवस्था में की उनके थोड़ेसे संयम और कष्ट से लाखों जीवों की प्राण रक्षा हो सकती हो।
इसका उत्तर वे यदि 'अवश्य करना चाहिए' इन शब्दों में देंगे तो इसमें उनके शिरपर जीव रक्षा का कितना बड़ा दायित्व प्रा पड़ेगा। इस को स्वयम् सोच सकते हैं। और इस का उत्तर उस समय उनके पास क्या रह जाएगा जबकी उन दया के लाइलों को यह सुझाया जायगा कि, वे पूर्ण रुप से दया नहीं कर रहे हैं, और जानते हुए भी प्रस्ताव धानी और उपेक्षा की शरण लेरहे हैं। कुछ भी नहीं ?
भाइयों ? इस श्राकाशके भीतर असंख्याति असंख्य ऐसे विभी है कि, जो हमारी दृष्टि में नहीं पाते और चलते फिर. ते और उढ़ते रहते हैं। उन में से हम कितनों ही को 'सुक्ष्म दशक' यत्र [खुर्दवीन द्वारा देख भी सकते हैं। फिर भी उन सव को यह हमारे चमड़े के नेत्र नहीं देख पाते । उन को तो हम शान द्राष्ट से ही देख सकते हैं। और उनका अस्तित्व सम्पूर्ण मतावलम्बी मानते है। ऐसी दशा में उनकी रक्षा करना भी श्रा वश्यक माना गया है । और जव रक्षा करना आवश्यक माना जाता है तव उसके साधनों की भी खोज होती है और वनते हैं क्योंकि "श्रावश्यकताही आविष्कारों की जननी है।"
श्राकाश के भीतर अपरिमित संख्या में जो जीव हैं उन का खून हमारी असावधानी से होता है। हम चलते फिरत हाथ हुलाते और बोलने में उन्हें मार डालते हैं। और उस का पश्चात्ताप हसको तनिक भी नहीं होता है। इस में से कितने ही तो वे लोग है जो अपने थोड़े से सुख और असुविधा के पीछे इस ओर ध्यान नहीं देते हैं । और कितने ही
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[ ६ ]
मुखवस्त्रिका |
जानकारी नहीं रखने से अर्थात् अपनी श्रज्ञानता से इन जीवा की हिंसा करते हैं । परन्तु इन में टोपी दोनो तरह के मनुष्य हैं। क्योंकि कानून नहीं जानने वाला व्यक्ति दण्ड से अपने को नहीं बचा सकता है । जब कि, जानकारी प्राप्त करने के लिए सब को स्वतन्त्रता है फिर नहीं जानने वाले लोग क्यों नहीं इसका ज्ञान प्राप्त करलेते है । हां जानने वालों का यह कर्तव्य अवश्य है कि, जिज्ञासु और जान मनुष्यों को इस का मर्म बतलावे और इस का ज्ञान प्राप्त करावे, इसी लिए मैंने भी इस पुस्तक को लिखना श्रावश्यक समझा है ।
संसार का ऐसा कोई धर्म नहीं है जो दया को न मानता हो । सब धमों में दया और अहिंसा की शिक्षा सब से पहले दी गई है । मनुष्य मात्र का कर्तव्य है कि, सारे जगत् के प्राशियों पर दया करे " श्रात्मवत् सर्व भूतानाम् ' इस महात्राक्य को न भूले |
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मनुष्य हाथ पैर हिलाने और चलने फिरने से शान्त रह सकता है | परन्तु बोलने से नहीं । कितने ही का स्वभाव होता है कि थक कर पड़जाने पर भी मुँह से निरर्थक और अनर्गल शब्द उगलता ही करते हैं ।
उच्चारण
और श्वास प्रश्वास द्वारा मनुष्य महान पाप कर डालता है अर्थात् मुँह की भाप से कोठान कोटि जीवों को जला देता है ।
इस से सिद्ध हुआ कि, ज्यावह हिंसा मनुष्य अपने मुँह से ही करता है । और इस की रोक न करना कितना हानि कारक है ।
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मुखवस्त्रिका ।
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इस हानि से बचने के लिए, इस महान् पातक से पीछा छुड़ाने के लिए मुखवास्त्रिका की आवश्यकता हुई। और इस ही लिए आदि पुरुषों ने इस का आविष्कार किया। और दयार्द्र महापुरुषों के इस को हर समय मुख पर धारण करने का कारण भी यही है। मुखवस्त्रिका का प्रचार कब से हुआ और इस को
कौन लोग बान्धते है ! .
कई धर्मों का प्रादुर्भाव पीछे से हुआ है अर्थात् कई सं. प्रदायों ने जन्म इस आधुनिक समय में ग्रहण किया है । इस प्रकार जैन धर्म युग धर्म और प्रचलित धर्मों में से नहीं है। प्रत्युत सनातन काल से पृथ्वी पर प्रचलित है।
कितने ही लोगों का कथन है कि, जब वुद्धने जीव हिंसा के भीषण काण्ड से उद्वेलित होकर बुद्ध धर्म अर्थात् अहिंसा का प्रचार किया था उस समय भगवान् महावीर भी प्रकट हुप और तब से ही जैन धर्म का जन्म हुआ है। परन्तु यह कपोल कल्पित मन घईत है। जैन धर्म के अस्तित्व का पता तो विचारा इतिहास भी हार पा चुका है। इस धर्म का प्रादि काल अतीत के गर्भ में विलीन हो रहा है हां, भगवान् महा वीर गौतम बुद्ध के समकालीन अवश्य थे । और उस समय तप और अहिंसा का प्रचार प्रवल रूप से हुआ था। परन्तु इस पर यह कहदेना कि, उसी समय में इस धर्म का प्रादुभाव हुश्रा है यह सिद्ध करना लच्चर और थोथी दलील है।
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मुखवस्त्रिका। भगवान् महावीर तो चौवीसवे तीर्थकर है। इन के पहले तेईस तीर्थकर हो चके हैं। यदि भगवान महावीर से ही इस धर्म का प्रादुर्भाव हुआ होता तो तेईस तीर्थकर पहले कैसे होगए ? भगवान् महावीर ही पहले तीर्थकर माने जाते। परन्तु ऐसा नहीं है। _मुखवस्त्रिका का प्रचार भी इस धर्म के साथ ही से है। नया नहीं है क्योंकि यह तो जैनियो के दया पालन का मुख्य चिन्ह है। _ नया प्रचारतो मुखवस्त्रिका को हाथ में रखने का श्वेताम्बरी संप्रदाय मे हुआ है जिस को प्रमाणों के सहित आगे समझाऊं गा।
लेखक ।
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इसमें श्री आदिनाथ भगवान् का चित्र उल्लेखनीय है।
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मुखवत्रिका ।
[६]
मुखवस्त्रिका को हाथ में रखना चाहिए ?
अथवा मुंह पर बंधी रखना ?
मुखवास्त्रिका के अस्तित्व में तो किसी को सन्देह ही नहीं है । जैन श्वेताम्बरीय साधु अर्थात् २२ सम्प्रदाय वाले तथा मूर्ति पूजक एवम् श्रावक भी इसे मानते हैं । क्योंकि, जैनागमों में स्थल स्थल पर इसका वर्णन मिलता है, यदि प्रमाण रूप में उन सब को उद्धत करें तो एक बड़ा पोथा इसीका बन जा सकता है । परन्तु जो वात निर्विवाद सिद्ध है उसका वर्णन करना अनावश्यक और निरर्थकसा है। फिर भी जिनकी इस में जानकारी नहीं है उन पाठका के लिए थोड़े से प्रमाण की अवश्य आवश्यकता है। एतदर्थ इसके प्रमाण वताता है और वे भी ऐसे वैसे ग्रन्थों के नहीं, भगवती सूत्र इत्यादि के, जिनको श्वेताम्बरी साधु एवम् श्रावक भी अपने माननीय और उपास्य सूत्र मानते हैं। देखिए १ भगवती सूत्र के दूसरे शतक के पांचवे उद्देश्य में क्या लिखा है ?
तएणं से भगवं गोयम छट्ठखमणं पारणगं सि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ बियाए पोरिसाए झाण झियाए तइयाए पोरिसीए अतुरियं अचवलं असं भते मुहपोत्तियं पडिलेहई २ त्ता भायणायं वत्थायं पडिलेहई २ त्ता भायणायं पम्मजई २ त्ता भायणायं उग्गिएहई २ त्ता।
अर्थात् उसके वाद गौतम स्वामी ने वेले ( दो दिन के
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मुखवास्त्रका।
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उपवास ) के पारणे के दिन प्रथम प्रहर में मूत्र स्वध्याय की। द्वितीय प्रहर में ध्यान किया और तृतीय प्रहर में 'मुह पोत्तियं' (मुखवस्त्रिका) और पात्रों की प्रमार्जना की।
और ज्ञाता धर्म कथाह्न सूत्र” के सोलहवे अध्याय म भी 'मुहपोत्तियं' शब्द की सिद्धि के लिए जिनेश्वर ने प्रति पादन किया है। - उस ही प्रकार 'उपासकदशाग-अन्तकृताङ्ग, 'अणुत्तरोव' वाई श्रादि सूत्रों में भी कई स्थलों पर इस का स्पष्ट रूप से वर्णन है।
इन प्रमाणों से पाठकों को भी श्रव विश्वास होगया होगा कि, मुखवस्त्रिका को मानने में तो किसी को आपत्ति नहीं है । आपत्ति है तो केवल मुंह पर बांधने में । और वह भी किस को केवल श्वेताम्बरीय मन्दिर मागीय साम्प्रदायिक को? और इस का वाद विवाद कालान्तर से हो रहा है। संसार के सामने इस विषय को वास्तविक चोला पहनाने का प्रयत्न अाज तक किसी ने नहीं किया। जिस किसी ने भी इस पर लेखनी उठाई पक्ष पात को एक ओर रख कर नहीं। अपने अपने मत की ओर खींच कर अपना पाण्डित्य प्रदर्शित किया है । अथवा वितण्डावाद द्वारा अपनी वाणी को दृपित किया है । अतः श्रावश्यकता समझ कर श्राज इस में में अग्रगामी हुआ हैं । मे इसका वर्णन करन में तटस्थ रहगा । और पनपात रहित होकर इस की सच्ची समालोचना करूगा।
संभव है, सत्य को पसंद नहीं करने वाले कितने ही महा. नुभावों को मेरी कड़ी पालोचना अखरे । परन्तु मुझे उनक
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मुखबास्त्रका ।
[११] प्रसन्न ओर अप्रसन्न होजाने की परवाह ही क्या है ? मुझे तो सत्य की परवाह करनी चाहिए कि, जिस के बलपर सं. सार स्थिर है । मुखवस्त्रिका मुह पर ही बंधना चाहिए। यदि इसे मुह पर न वांधी जावे तो न तो इस से कोई लाभ ही हो सकता है। और न इस का नाम मुखवस्त्रिका, रखने की ही आवश्यकता पड़ती। यदि वुद्धि द्वारा इस के नाम पर विचार किया जावे तो इस की असलियत समझ में आजाना कुछ कठिन नहीं है।
काम से नाम की रचना होने की प्रथा आज से नहीं है। सृष्टि के आदि काल से है। राजा इस लिए कहते हैं कि, वह प्रजा को रज्जन करता है और उसे हीभूपाल इस लिए कहते है कि, वह पृथ्वीको पालता है। पानी पीनेके भाजनका गलव्यास (जिसका अपभ्रश गिलास है ) इस लिए कहते हैं कि, उसका गला चौड़ा है। ऊपर के कमरे को अट्टालिका । अट्टश्रालिका ) इस लिए कहते हैं कि, वह ऊंचा है। पगड़ी को शिरोवेष्टन इस लिए कहते हैं कि, वह शिर पर लपेटने की वस्तु है । अंगरखी का नाम अंगरक्षिका इसीलिए हुआ कि वह अंग की रक्षा करती है । पगरखी का नाम पद रक्षिका इसीलिए पड़ा है कि, वह पद की रक्षा करती है। हरिणको मृग गति इस लिए पुकारते हैं कि, वह बहुत तेज दौड़ता है। वन्दरों को शीखामृग इस लिए कहते हैं कि, वे वृक्ष की साखों पर भागते है । क्षत्रियों को राजपूत (राज पुत्र) इस. लिए कहते हैं कि, वे राजा के पुत्र है बहलों को नीर धर इस लिए कहते हैं कि, वे जल को धारण करने वाले है । कुंचों को पयोधर इस लिए कहते हैं कि, वे दुध धारण करते हैं। महलों का नाम 'महालय' इस लिए है कि, वे वडे घर
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[१२]
मुखवारका।
के जीवों को जलचर इस लिए कहते है कि, वे जल में विचररण करने वाले हैं। उड़ने वाले जन्तुओं को नभचर इस लिग कहते हैं कि, वे श्राकाश गामी है। इनका वर्णन कहां तक की रूं । ऐसे नामों की संख्या अपरिमित है । इन उदाहरणों से मेरा भाव यह है कि, जैसे उपराने नाम कामक साथ है, उस ही प्रकार मुखवस्त्रिका का नाम भी काम से ही रचा गया है। अर्थात् मुखपर बंधती है इसीलिए उसका नाम मुखवस्त्रि का पड़ा है।
यदि मान्दिर मार्गी भाइयो के कथनानुसार यह हाथ में रखेन का वस्त्र होता तो इसका नाम हस्ताडा अथवा रू माल पड़ता । मुखवीस्त्र का कभी नहीं होता। और सूत्रों भी मुहपातिय, के स्थान में 'हत्थपोत्तिय, लिखा मिलता अव इस म तार्किकों की यह शंका होसकती है कि, सूत्रो मुहपोत्तियम् शब्द का अर्थ केवल 'मुंह का वस्त्र ही होता फिर वाधना अर्थ कैसे लगाया । सो इस शंका का निर करण इस प्रकार हो सकता है कि, सूत्र भाव गंभीर होते उन्ह में थोड़े शब्दों में लम्या चौड़ा श्राशय भरा रहता है सूत्रों को समझाने के लिए पगिडतों ने उन पर वृत्ति श्री व्याख्या की रचना की है। पोर उनको, छोटे छोटे सूत्रों के बोधगम्य बनाने के लिए महान भाप्यों का निमार्ण कर पड़ा है। यही क्यों सूत्र, शब्द की व्याख्या ही का टाखे "त्रयन्ति यति अल्पानर बहन्याणि इति सत्रम् श्रय थोड़े अन्नग में बहुन अर्थाहा उसे सूत्र कहते है
सूत्रों के अर्थ में प्राय लक्षणा होती है। जैसे भारत वर्ष। मिक है, उसमें श्रमिधान के अनुसार भारत वर्ष एक देश:
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मुखत्रिका |
[ १३ ]
नाम है और देश धार्मिक नहीं हो सकता, परन्तु इस जगह लक्षणा से 'भारतवासी लोग धार्मिक है, यह अर्थ लिया जाएगा । ठीक इस ही प्रकार 'मुखवस्त्रिका का अर्थ भी मुखपर वधने वाला वस्त्र लिया जायगा । क्या, लक्षणा से इस प्रकार का अर्थ करना माननीय है ! और उस का प्रयोग कहां तक होता है ! ऐसे प्रश्न तार्किकों के फिर भी होसकते हैं । ऐसी दशा में इसका उत्तर देदेना भी अनुचित नहीं होगा । और वह भी युक्ति युक्त और उदाहरणों सहित होना चाहिए ।
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प्रिय पाठक ! इसको तो सारे विद्धान मानते है कि, लक्षरणा, साहित्य का एक मुख अंग है । और लक्षणा ही काव्यं को भाव पूर्ण बनाती है । उस काव्य का, काव्य जगत् में कोई श्रादर नहीं होता जिस में शब्दों का बाहुल्य और अर्थ की अल्पता हो । उत्तम काव्य तो वह है जो थोड़े शब्दों में ज्यादह भाव व्यक्त कर सके और उसका तात्पर्यार्थ लिया जा सके । और ऐसा जो काव्य होगा उसमें और २ अंगों के साथ लक्षणा ज़रुर होगीं ऐसी स्थिति में लक्षणा से अर्थ करना क्यों सही और सत्य नहीं है । श्रवश्य है । जिस को थोड़ा भी साहि त्य का ज्ञान है वह इसके मानने में ज़रा भी श्रागा पीछा नहीं होसकता है
अब मुझे यह समझाना है कि, इस का प्रयोग कहां तक होता है सो इसका प्रयोग तो प्रत्येक मनुष्य की जिह्वा द्वारा नित्य प्रति हुआ ही करता है और उस में तार्किकों का कोई गुजर ही नहीं है।
देखिए ? कोई किसी को यह कहे कि पानी लाना ता क्या तार्किक महाशय उसमें यह शका करेगा कि, लोठे में भर कर लाने का अर्थ इस में से नहीं निकलता है । गलत ! पानी जब
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मुखस्त्रिका।
लाया जायगा तो पात्र के विना नहीं श्रासकता है परन्तु पात्र के लिए कहने को कोई आवश्यकता नहीं रहती है । इस ही प्रकार 'रोटी खाओ, इस शब्द में से यह अर्थ नहीं निकलता है कि, हाथ से लेकर मुह से खाया, दन्तों से चबाओ । परन्तु जिस के हृदय के नेत्र हैं वे समान ही लेते है कि, हाथ के द्वारा तोड़कर रोटी मुखसे ही खाई जाती है। और कोई सा धन नहीं है । और भी बताता है कि, कोई किसी को यह श्रादेश करे कि, घर जाओ तो क्या जानेवाले को जूते पहन कर पावसे चलने की बात भी समझानी पड़ेगी। कभी नहीं। रथी अपने साथी को रथ लाने की आज्ञा देगा तो रथ लायो, केवल इतना भर वोलेगा इसके शब्दार्थ में घोड़े जोत कर लाश्रो इतना मतलव नहीं निकलता। परन्तु रथ घोड़े जोतकर ही लाया जाता है । अत. सारथी को इतना कहने की आवश्यकता नहीं है। अर्थात् रथलाओ, इसी का अर्थ घोड जोतकर लानेका होजाता है।
ऐसे सहस्रों सांकेतिक शब्द है जिनके कहत ही उनका सारा प्राशय लोगों की समझ में शीघ्र ही श्राजाता है । चैसे ही शब्दों में से 'मुखवस्त्रिका शब्द भी है और इसका अर्थ भी लक्षणा से यही होगा कि, मुह पर बाधनेका वस्त्र ।
यदि सम्पूर्ण जगत् तार्किको से ही भरा हुआ होतो संसार में कोई कार्य ही नहीं हो सकता । और जीवन भारवत होजाय । तर्क हरवान में हराय में हो तो सकती है। परन्तु वात २ पर तर्क करना अच्छे और सच्चे श्रादमियों का काम कदापि नहीं है । सभ्य संसार ने ऐसे मनुष्यों की गणना छि द्रान्वेपियों में की है। ससार में कोई किसी का पन ग्रहण
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मुखवस्त्रिका।
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करना चाहे तो सत्यका, अन्यथा वह दुरग्रही सावित होगा।
और विजय लक्ष्मी भी उसको प्राप्त नहीं होगी। कोई मनुष्य जब किसी नये विखेड़े को खड़ा करता है तो संसार के सम्मुन वह झूठा प्रमाणित होने पर भी उसकी दुम पकड़े हो रहता है। परतु यह उसकी कम जोरी है । अपराध और भूल को स्वीकार नहीं करना हृदय दौर्बल्य है ! मानसिक निर्वलता है। अच्छे अादमी एसा कभी नहीं करते । वे अपनी भूलों का लोगों के सामन रखन में कभी नहीं हिचकिचात । बल्के खुल शब्दों में उसे स्वीकार करके अनजान मनुष्यों को सचेत करते हैं कि, उनके तरह और कोई ऐसी भूल न कर बैठे । महान् पुरुषों की छोटी २ भूलों ने संसार में बहुत बड़ा विगाड़ किया
बड़े आदमियों और समाज के नेताश्रा पर समाज के हानि, लाभ का बहुत बड़ा दायित्व है। इसलिए कि, 'महाजनो येन गतः स पंथः 'इस उक्ति के अनुसार छोटे आदमी सदा से वड़ों का अनुकरण करते श्राए हैं। यदि बड़े कोई गलती करजाए और उसको वे छुपा कर उसका सुधार न करले तो छोटे तो उस भूल को ही अपना श्रादर्श मानलत है और उससे समाज की कितनी हानि होजा सकती है इसको विचारशील पाठक सोच सकते हैं।
हां, अच्छे और बुरे को सोचे विना ही वड़ों का अनुकरण करना निरान्ध विश्वास जरूर है । परन्तु जिन में सोचने की ताकत ही नहीं है वे बड़ों के नाम पर बिकते रहें तो इस में श्राश्चर्य ही क्या है। ऐसे ही मुख वस्त्रिका को पहले किसी एक ने प्रमादवरा यद्वा मुह पर बान्धने की अटपटी
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मुखवास्त्रका।
से हाथ में रखलो हागा वही वात पकड़ा गई और उसी पर
आज सारे श्वताम्वरी मन्दिर मार्गी साधु व श्रावक उतर पड़े है । परन्तु उन्हें यह पता नहीं है कि, उन लोगों में पहिले मुख वस्त्रिका मुंहके ही ऊपर बांधी जाती थी। हाथ में नहीं रक्खी जाती थी।
अन्ध परंपरा और महजव के नाम पर ना समझलोगों ने कितने ही हत्या काण्ड करडाले है । परंपरा क्या पदार्थ है ? महजव प्रया चीज है ? इसका समझना सामान्य पुरुषों का काम नहीं है। अधिकाश मनुष्य नारकीय यातना के भय से ही किसी काम को नहीं करते और स्वर्गीय सुखों की लालसा से ही किसी कार्य को सम्पादन करते है। परन्तु उन्हें वास्तविक भान नहीं होता है । वे अच्छा समझकर किसी काम को करते हो और वुरा समझकर छोड़ देते हो सो बात नहीं। नरक का भय और स्वर्ग की लाससा ही उनके कर्तव्य की कुंजी है। परन्तु मानव धर्म वड़ों के नाम पर विकने की सलाह कभी भी नहीं देता। बड़े बुरा काम कर जाएँ तो छोटों का यह काम कदापि नहीं है कि, वे भी वैसा ही करें। यद्यपि उन्होने भ्रम में पड़कर कुछ दिन वैसा कर भी लिया हो तथा पि अव तो उनको उन्ह कुरूड़िया से परहेज करना चाहिए। वित होजाने पर भी पहलवान ताल ठोकता रहे और पहलवानी का लंगर पहन रहे तो यह उसकी धृष्टता नहीं तो और क्या है । मनुष्यत्व तो इसी में है कि, अपनी भूलों का सुधार करले । मुखवस्त्रिका को पहले किसी ने भूलकर हाथमें रखली और मुंह पर नही बांधी तो क्या जरूरत है कि, हम भी वैसा ही करे। मसलन मशहर है कि, किसी स्थान पर कुत्ते के काम फड़ फड़ाने से उसका गलूड़े ( काट विशेष ) उछल कर
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बृहद-मुखवस्त्रिका निर्णय
(चित्र परिचय के लिये, बन्दने के लिये नहीं)
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मुखवत्रिका।
[१७]
कथा करने वाले के मुंहमें श्रागिरी उसने शीघ्र ही थूक दिया। उसका अभिप्राय श्रोताओं ने यह समझा कि, कुत्ते के कान फड़ फडाने पर थूकना चाहिए । और कथा करने वाले का सवने अनुकरण किया । अर्थात् थूका । कथा भट्ट महान् दंभी था, उसने किसी को थूकने का कारण नहीं समझाया, तव से यह प्रथा प्राचलित हो गई कि, कुत्ते के कान फड़ फड़ाने पर लोग थूकते हैं। आज उन्हें थूकने से मना करते है तो परंपरा के अधभक्त नहीं मानते हैं और कहते हैं, हम तो जैमा पहले से करते पाए हैं, उसे नहीं छोड़ेगे। परन्तु इस में बुद्धिमानी नहीं है।
मुझे आज कोई दलीलों से सिद्ध करके किसी बात को समझा दे तो मैं कालान्तर की ग्रहण की हुई वात को एक क्षण भर में छोड़ देने के लिए प्रस्तुत हूं । इस ही प्रकार मन्दिरमार्गी भाइयों से प्रार्थना है कि, वे भी मुखवस्त्रिकाको हाथ में रखने की हटको छोड दें। यह तो मुख पर बांधने की ही वस्तु है। हाथ में रखने की नहीं, न यह हाथ में शोभा ही पाती है। क्योंकि कोई भी पदार्थ अपने स्थान के विना शोभित नहीं होता। कहा है “ स्थान एव हि योज्यन्ते, भृत्याश्चा भरणानि च । नहि चूड़ामणिः पादे, नूपुरं मस्तके यथा" ॥
अर्थात् भृत्य और भूषण को अपने २ स्थान पर ही रखने चाहिए । चूड़ा मरिण ( बोर ) पैर में और नूपुर मस्तक पर धारण नहीं किया जा सकता । किसी कविने और भी कहा है "मुकुटे रोपित. काचः, चरणा भरणो मणि' । नहि दोपो मणेरस्ति, किन्तु साधोर विक्षता' ॥ अथात् मुकर में तो कांच का टुकड़ा और पैर के भूपण मे मणि लगाई जाय
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[१८]
मुखस्त्रिका।
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तो इस में मणिका दोप नहीं है। बल्कि जड़िया की बुद्धिमत्ता है। अर्थात् मूर्खता है। कविका भाव यह है कि, जो पदार्थ जहां रहना चाहिए उसको वहा ही रखना योग्य है,अन्यथा वह पदार्थ भी निकम्मा होजाएगा और योजक की भी नासमझी प्रकट होगी
यही वात मुखवस्त्रिका के सम्बन्ध में भी है । उसको हाथ में रखने से न तो उसका यह (मुखवस्त्रिका) नाम ही शोभित होता है न उस से कुछ लाभ ही है। क्योंकि मुखर. स्त्रिका विशेपतः जीवहिंसा निवृत्यर्थ मुख पर वाधी जाती हैं।
और मुखपर बंधी रहने से उससे और भी कई लाभ है जिन्हें में आगे चल कर बताऊंगा । ऐसी दशा में यदि उसे मुखपर न वाधी गई तो उससे क्या लाभ हुआ और उसकी मुखवास्त्रका सक्षा भी कैसे हो सकती है। वह तो दस्ती रुमाल है। अजा के गले में लटकने वाले स्तन से न तो दूध ही निकलता है। न गल की शोभा ही। इस ही प्रकार यह मन्दिर मार्गी भाइयों की मुखवीत्रका, भी निरर्थक सी ही है। क्या में श्राशा करूं कि, मन्दिर मार्गीय महानुभाव मेरी सच्ची और वेदाग दलीलों को हृदय में स्थान देंगे और उनका निर्णय मुझ तक पहुंचावगे? कदाचित ऐसा हो? मन्दिर मार्गीय भाई प्राय एक ही प्रमाण मुखवस्त्रिका को हाथ में रखने की दलील के लिए पेश किया करते है वह क्या है ? और किस मूल का है ? उस का स्पष्टी करण कर देना भी बहुत आवश्यक प्रतीत होता है क्योंकि, उनके प्रमाण का उत्तर दिए बिना सत्य और झूठ का निर्णय नहीं होमकता है। अच्छा तो उसका स्पष्टी करण भी सुन लीजिए। वे लोग कहत हैं कि, 'दु ख विपाक, मूत्र के द्वितीय स्कन्ध में लिखा है। ...
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मुर वस्त्रका |
[ १६ ]
जेणेव भूमिघरे तेणेव उवागच्छई २ ता चउ पड़लेण वत्थे मुहं बंधेई २ त्ता भगव गोयम एवं वयासि तुझे भंते मुहपोतियाए मुहं वंधइ ॥
इसका यह अर्थ है कि, जिस ओर भूमि घर था उस र मृगावती ने श्राकर चार पड़ के वस्त्र से मुख बांधा । और भगवान् गौतम स्वामी को भी कहा कि, आप भी मुहपोत्तिया से मुख बांधले । सो यदि मुंह बंधा हुआ होता तो गोतम स्वामी से रानी पुनः मुंह बांधनेका प्रस्ताव क्यों करती ?
।
ठीक है ? रानी ने गौतम स्वामी को ऐसा ही कहा था, इस को हम भी मानते हैं परन्तु रानी का अभिप्राय उस कथन से मुखवस्त्रिका बान्धनेका कदापि नहीं था । वे यदि इस में पूर्वापर सम्बन्धयि सारे सूत्र को बताते तो पाठक उन्ही से समझ जाते । और मेरे उत्तर देने की भी श्रावश्यकता नहीं रहती । परन्तु केवल एक ही सूत्र का श्रंश अपनी दलील में रखकर अनजान भाईयों को भ्रम मे डालने की कोशिश की गई है । यह एक पेसा प्रयत्न है, जैसाकि पुनर्विवाह के सम्बन्ध में आर्य समाजी भाईयों ने सनातन धर्मी बन्धुओं को मनुस्मृतिके कतिपय लोकों का प्रमाण देकर भ्रममें डालने का किया था। परन्तु जिन श्लोकों में मृत भर्त्ताओं का पुनर्विवाह करना लिखा है उनसे श्रागे के श्लोकों में ही वर्णन है कि, "यह पुनर्विवाह की प्रथा महाराज वेणु ने प्रचलित की थी परन्तु यह वुरी प्रथा थी एतदर्थ इसको
कदी गई और आगे भी इसके जारी रखने की आवश्यकता नहीं है' । श्रव कहिए यदि किसी को मनुस्मृतिका ज्ञान न हो और आगे के लोक न पढ़े तो वह भ्रम में पड़ेगा या
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[२०]
मुखवत्रिका।
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नहीं ? मनु महाराज ने तो राजा वेणु के समय की प्रथाका वर्णन कर उसका खंडन किया है अर्थात् एक भारी ग्रन्थी को खोला है । और आर्यसमाजी भाई पूर्वापर सम्बन्ध छोड़कर वीचके श्लोकों को प्रमाण में रखते हैं। परन्तु जिस वेणु के अत्याचार से पृथ्वी पीड़ित होउठी थी और अत्या चार के कारण वह नाश को प्राप्त हुआ था और उसके मन्थन से महाराज पृथु प्रकट हुए थे उसी वेणु की दूषित प्रथा को धर्म का रूप दे देना जितना आर्य समाजी भाइयों को शोभा देता है। उतना ही यह मुखवत्रिका को हाथ मे रखने का प्रमाण मन्दिरमार्गी भाइयो को भी शोभा देरहा है। एक प्रसिद्ध कवि ने कहा है "अपने मतलब के प्रमाण शैतान भी शास्त्रों में से देमकता है " * ____ इस सूत्र में जो पूर्वापर सम्बन्ध छूट गया है उसका वर्णन किए विना इस शंका का समाधान नहीं होगा। अत. उसका वर्णन करता है।
वाचकवर्ग ? दो हजार वर्ष पूर्व की घटना है “ एक दिन । गौतम स्वामी भिक्षाशन प्राप्त करने के लिए वस्ती में पधारे । वहा एक दुग्वित आत्मा वहते हुप व्रणों से युक्त शरीर के अत्यन्त दुखी भिखमंग को देखा। स्वामी ने दयाई होकर विचार किया, कि इस मनुप्यके लिये तो यह लोक ही नर्क होरहा है। इससे बढ़कर नर्क की यंत्रणा या हो सकती है ? लौटने पर भगवान महावीर म उस मंगते की दास गय व्यथा का वर्नन कामराय पूर्ण शब्दों में किया। इस पर भगवान ने कहा गौतम नर्क में तो इससे भी बढ कर दुख हैं यदि इस रहस्य को जान
• देन्या 'बाद 'का नवम्बर मास की सन 18 27 का सख्या
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मुखवस्त्रका।
[२१]
ना है, तो मृगा नाम्नी रानी के मृगा लोड़ा नामक पुत्र है, उसे जाकर देखो ? उसके न हाथ है न पैर ? केवल पिन्ड मात्र है। और वह महान् दुःखी है । इस पर गौतम स्वामी उस लड़के को देखने के लिए पधारे। भगवान् गौतप का आगमन सुनते ही रानी मृगावती सामने आई । और गौतम स्वामी का स्वागत किया । आगमन का कारण जानने पर रानी ने कहा"भगवन् ? यदि आप उस लड़के को देखना चाहते हैं तो मुंह वांध लीजिए, उस के पास बड़ी दुर्गन्ध आती है" इस मुंह वाध लेने से रानी का अभिप्राय नाक पर कपड़ा लपेटने से है, न कि मुखवस्त्रिका वांधने से।
इस में पाठक यह शंका करेंगे कि, यदि यही बात थी तो नाक बांधने के लिए क्यों नहीं कहा १ इसका यह उत्तर है कि, प्राय-दुर्गन्ध के स्थान पर लोग मुंह के श्राड़ा पल्ला देदो मुंह वांधलो ! ऐसा ही कहा करते हैं । अर्थात् प्रयोग में यही वाक्य श्राता है। और इस लिए रानी ने भी नाक बांधने के स्थान में मुंह वाधने के लिए कहाथा , मुख वत्रिका के लिए नहीं । भगवान् गौतम के मुख पर मुख वस्त्रिका तो प्रथम ही वन्धी हुइ थी । यदि ऐसा नहीं था तो हम तार्किकों से यों पूछते हैं कि, क्या, गन्ध, मुख ग्रहण करता है ? कभी नहीं? न्याय में लिखा है 'प्राण ग्राह्या गुणागन्ध' अर्थात घ्राणन्द्रिय (नाक ) से गन्ध की पहचान होती है । इसको तो मन्दिर मार्गीय महानुभाव भी मानते हैं कि, रानी ने बोलने के लिए नहीं किन्तु दुर्गन्ध की रक्षा के लिए मुंह वान्धने को कहा था।
और दुर्गन्ध का वचाव नाक बाधने से ही हो सकता है। ऐसी दशा में रानी ने नाक न कह कर प्रचलित शब्दों का प्रयोग
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[२२]
मुखवस्त्रिका।
किया अर्थात मुह बांधने के लिए कह दिया तो क्या इस से यह सिद्ध होजाएगा, कि मुंह पर मुखवास्त्रिका बंधाई थी कमी नहीं! त्रिकाल में भी नहीं ??
भाइयों ? ऐसी रेत की दीवार से दुर्ग खड़ा नही किया जासकता। श्रापकी यह श्राशा दुराशा मात्र है और इस में श्राप को कभी सफलता नहीं मिल सकती। नाक बंध करने के स्थान पर प्राय. मुंह वांधने के लिए कह देने की आदत लोगों की आधुनिक काल से जारी हो गई हो सो बात नहीं है , प्राचीन शास्त्रों में भी इस का प्रमाण मिलता है । देखिये ज्ञात सूत्र के नव में अध्याय में कहा है. ____ "तपण ते मागदिया दारए नेणं अशुभेणं गंधणं अभिभूया समाणं सहं नुत्तरक्षेहिं पासायं पेहेई" अर्थात उस मागदिक गाथापति के पुत्र न उस असाधारण एवम् तीव्र गन्ध से श्राकुल होकर (प्रासायं) मुखको ढांक दिया । उस स्थान पर आप शब्दार्थ पर उतर पड़े तो असंगति के दोषी हुए विना नहीं रहेंगे क्योकि सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी यह समझ सकता है कि, दुर्गन्ध की रक्षा नाक द्वाग हो सकती हे न कि सुख द्वारा । आपके प्रमाण भूत उपरोक्त सूत्र के मन वाधन के वाक्य का अर्थ भी अवतो श्राप समझ ही गए होंगे ॥
पाठको? जिन्हें सत्य और न्याय का पन है और शास्त्र वेत्ता हैं वे तो श्रव मान ही लेंगे कि, मुखस्त्रिका का मुख पर हो गंधना चाहिए। और जो दगग्रही और व्यर्थ के हटी है उनको तो कप्ट न की हमारी भी इच्छा नहीं है। वता अपनी अपनी डफली और अपना अपना राग अलापा करें । इस विश्राम में मैंने सन्दिर म गं.य माइयों के प्रमाग का पूर्ण रूप
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मुसवस्त्रिका।
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से खण्डन करके दलालो प्रादिद्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि, मुखवस्त्रिका हाथ में नहीं रक्खी जावे मुख पर बांधी जाये। श्रव में आगे के विश्रामो में इस के शास्त्रीय प्रमाण देता है। मुख वस्त्रिका मुख पर ही बांधी जाती है, इसके प्रमाण ।
युक्तियों और दलीलों द्वारा तो मुखवत्रिका को मुखपर बान्धना सावित ही है परतु शास्त्रीय प्रमाणों से भी इसे प्रमाणित करना आवश्यक है । अतः इस के प्रमाण दिए जाते हैं।
मन्दिर मागियो के ग्रन्थ क्या कह रहे हैं मन्दिरमार्गियों का परम माननीय 'महानिशीथ' नामक सूत्र के सातवें अध्याय में लिखा है
" कन्नो ठियाएवा, मुहण तगेण वा ॥ विणा इरियं पडिक्कम्म, मिछुक्कड पुरिमहं वा ॥' अस्यटीका-कर्णेस्थितया मुखपातिकया इति विशेष्यं मुखान्तकेन वा विना इर्ष्या प्रतिक्रामेत् मिथ्यादुष्कृतं पुरिमद्धि वा प्रायश्चितम् ।
अर्थात् ( मुहणतगणवा) मुखवस्त्रिका [ कन्नोठियापवा ] कानों में वाधे (विणा) विना ( हरियं) मार्ग में गमनागमन का विचार ( पडिक्कम्मे ) करे तो उस को ( मिलक्कड') मिथ्यादुष्कृत का दण्ड [वा ] अथवा [ पुरिमट्ठ ] दो प्रहर पर्यन्त भूखा रहने का दण्ड अगीकृत करना चाहिप -
पाठक ' कितनी कठोर अाशा है। मुखवस्त्रिका मुख पर गंधे बिना कोई एक पद भी नहीं चल सकता । और यदि चले तो कड़ी सजा । आश्चर्य है कि, ऐसे स्पष्ट और वज्र गभीर शब्दों को सुनने में बधिर होकर एक और हट जाते
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[ २४ ]
मुखवस्त्रिका |
है । और व्यर्थ के बाद विवाद में धर्म का खून कर रहे हैं क्या यह अच्छे विचारा का सुबूत हैं ! और एक ही सूत्र में ऐसा लिखा हो सो बात नहीं है । और भी कई सूत्रों में इस के प्रमाण विद्यमान हैं । सामायिक सूत्र में लिखा है
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मुहरांतगेण कणोडियाए, विणा बंधह जे कोवि सावर धम्मकिरियायं करंति तस्स एका रस्स सामाइयस्वर्ण पाय च्छितं भवति । अर्थात् यदि कोई श्रावक मुखवस्त्रिका को कानों में वांधे विना ही धर्म क्रिया करेतो उसके प्रायश्चित में उसको ११ (एकादश) सामाई [ सामायिक ] करना पड़ता है । श्रतश्रावकों को धर्मक्रिया करते समय मुखवस्त्रिका मुख पर अवश्य बांधनी चाहिए। श्रव देखिएगा । जब श्रावकों के लिए ऐसी धर्म्माज्ञा है तो साधु उससे विमुख कैसे रह सकते हैं । वल्कि गार्हस्थ्य जीवन में तो धर्म्म क्रिया का समय नियत है और इसीलिए श्रावक को धर्म क्रिया के समय ही मुखवस्त्रिका बांधने का आदेश किया है । परन्तु साधु जीवन में तो हर समय धर्म क्रिया में प्रवृत्त रहना पड़ता है । और ऐसी दशा में मुखवस्त्रिका साधुओं को हर समय वांधनी चाहिए | परंतु मन्दिर मार्गी साधु महात्मा हर समय तो दूर किसी भी समय नहीं - बांधते है तो क्या उनको यही उचित है कदापि नहीं ! त्रिकाल में भी नहीं ??
मन्दिर मार्गीय भाइयों का यह भी कथन है कि, मुखवस्त्रिका जीव हिंसा निवृत्यर्थ नहीं है पुस्तक पर ध्रुक न गिर जाय इसलिए पुस्तकावलोकन के समय मुख के थाड़ी रख लेना चाहिए । सो उनका यह कहना असत्य है । मुखवस्त्रिका जीव हिंसा निवृत्यर्थ है इस का प्रमाण भी चाहिए अन
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वृहद्-मुखवस्त्रिका निर्णय
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जाज्वल्यमान अगारे कुढ रहा है।
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मुखवस्त्रिका।
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प्रमाण देता हू और वह भी मन्दिर मार्गी भाईयों के ग्रन्थ में से ही। देखिए ! इन के 'ओघ नियुक्ति' नामक ग्रन्थ की १६६-६४ वीं चूर्णी की गाथा में लिखा है।
संपाइम रयणु, परमझण ठावयंति मुहपोति । नासं मुहं च बन्धइ, तीएव सहि पमझन्तो ॥
अर्थात् खुले मुंह बोलने से जीवों की हिंसा होती है अतः मुखवस्त्रिका को मुखपर वांधना चाहिए । इस ही प्रकार " श्रीप्रकरणरत्नाकर" के अन्तर्गत मन्दिर मार्गियों के श्राचार्य श्रीनेमिचन्द्र सूरि ने अपनी " प्रवचनसारोद्धार" नामक रचना में मुखवत्रिका को जीव हिंसा निवृत्ति के लिए मुखपर वाधने का आदेश किया है, जो उफ्तरचना के पृष्ठ १४१ पर अङ्कित है। क्या अब भी किसी को यह शंका हो सकती है कि, मुखवस्त्रिका वाष्प द्वारा मरजाने वाले जीवों पर दया करने का साधन नही है ? पुस्तक पर गिरने वाले थूक कण की रोक का कपड़ा है ? हर्गिज नहीं ! मुखवस्त्रिका को मुख पर ही वांधना चाहिए इसके और भी प्रमाण देता हू । देखिए ! मन्दिर मार्गी साम्प्रदायिक पूर्वाचार्य श्रीमद् चिदानंद महाराज रचित " स्याद्वादानुभवरत्नाकर" ग्रन्थ के ५४ वे पृष्ठ पर ३३ वीं पंक्ति में उल्लेख है कि 'कान में मुंहपति गिसकर व्याख्यान नहीं देना यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि प्राचार्यों ने परम्परा से कान में गिराकर व्याख्यान देने का ही उपदेश किया है" और उस ही ग्रन्थ में उन श्राचार्य ने श्रागे चलकर पुनः लिखा है “कान में मुहपत्ति बांध कर व्याख्यान देना चाहिए ' विचार शील पाठक ! इससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकते है और मुखवस्त्रिका मुख पर बांधने में अब कोई क्या सन्देह कर सकता है, आप ही कहिये ?
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मुखवत्रिका |
उपरोक्त प्रमाणों ही से इस विवादग्रस्त प्रश्न को छोड़ नहीं रहा हूं। और भी कई प्रमाण हैं उन सबको उद्धृत किये विना पाठको और ( यदि न्याय दृष्टि से मानेंगे तो ) मन्दिर मार्गी भाईयों को सन्तोष नहीं होगा । देखिये ! दीक्षाकुमारी द्वितीय भाग पृष्ठ २७४ पर अति है ।
" तमे तप गच्छ ना साधु छो । श्रने मूर्ति ने माननारा छो तो पण तमारा क्रिया मार्ग नी अन्दर अनेक जात नी सामा चारी प्रवर्ते छे । कोई मुखे मुखवस्त्रिका वांधेछे, ने कोई नथी बांधता " इस से भी यह सिद्ध है कि खास मन्दिर मार्गियों में भी बहुतों में मुखवस्त्रिका मुख पर बांधने का प्रचार है, और बहुतों में नहीं ।
•
और पहले मूर्ति पूजक साधु और गृहस्थ सव ही मुखवस्त्रिका को मुखपर बांधते थे इसके बहुत से प्रमाण खरतर गच्छ में मिलते हैं । कृपाचन्द्र सूरि व्याख्यान देते समय मुख पर मुखवस्त्रिका बांधते हैं । और पतासीनी पोल दोसी वाहा अहमदावाद, डेलानी संप्रदाय के धर्म विजयजी पण्यास, माणविजयजी दादाजी की संप्रदाय के यद्वा सिद्धिविजयजी श्राचार्य और मेघविजयजी पण्यास श्रादि संवेगी साधु व्याख्यान देते समय अव भी मुखवस्त्रिका वांधते हैं । यदि मुखवस्त्रिका मुख पर नहीं बाधी जाती तो खास मन्दिर मार्गियों में ऐसा प्रचार कैसे हो सकता था ?
मन्दिर मार्गियों में जिनको दया की कुछ कीमत मालूम हैं वे श्रव भी मुखवस्त्रिका को मुंह पर बांधना नहीं छोड़ते हैं । और जिनको अपने वेप विन्यास का ध्यान है और शान
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मुखवास्त्रिका।
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आरै सौन्दर्य के उपासक है वे दया की परगह नहीं करते और अपनी जिदसे मुखवस्त्रिका को हाथ में रखत है। परन्तु मुखवस्त्रिका को हाथ में रखने के लिए उनके पास अव कोई जवाब नहीं है।
उनके अर्थात् मन्दिर मार्गियों के कई आचार्यों ने भी सूत्रों श्रादिका ही अनुकरण करके पीछे से जो ग्रन्थ निर्माण किए हैं, उनमें भी मुखवस्त्रिका को मुखपर बांधे रहने का श्रादेश किया है। जैसा कि, देवसूरि, प्राचार्य ने स्वचित समाचारी ग्रन्थ में लिखा है "मुखवत्रिका प्रति लेख्य मुखे वध्वा प्रति लेखयति रजोहरणम्" अर्थात् मुखवत्रिका का प्रातलेक्षण करके मुखवस्त्रिका को मुख पर बांध कर रजोह रण की प्रतिलेक्षणा करना चाहिए ।
और इन्ही के प्रवीचार्य उद्योतसागरजी ने अपनी रचना " श्रीसम्यकत्व मूल वार व्रतनी टीप" के पृष्ठ १२१ पर या लिखा है कि, " तीजो चल दृष्टि दोष ते सामीयक लईने पछी दृष्टि ने नाशिका ऊपर राखे अने मन मा शुद्ध श्रुतोप योग राखे, मौन पणे ध्यान करे तथा जे सामायिक वंत ने शास्त्र अभ्यास करवो होय तो जयणा युक्त थई मुंहपत्ति मुखे बांधी ने पुस्तक ऊपर दृष्टि राखीने भणे तथा सांभले"
पाठक महाशय । इसमें श्रावकों को सुखवत्रिका मुखपर बांधने की प्राज्ञा दी है, जैसा कि, पहले भी एक उदा हरण में प्राचुका है। इसको सब कोई समझ सकते है कि, एक धर्म गुरु जिस बात का अपने थावकों को उपदेश करे उसका आचरण स्वयम् श्राचार्य होकर नहीं करे यह कैसे
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मुखवविका।
मुनि लब्धि विजयजी महाराज ने अपनी बनाई हुई "हरिवल मच्छी के रास" नामक पुस्तक की सत्ताईस वीं ढाल के दोहे में इस प्रकार कहा है
"सुलभ बोधी जीवड़ा, मांडे निज खटकर्म । साधु जन मुख मुँहपत्ति, बांधी है जिन धर्म ॥
इस दोहे में कितने खुले शब्दो में मुंहपर मुखवीस्त्रका वांधने का कथन किया है ? क्या अब भी किसी को कोई शंका हो सकती है कि मन्दिर मार्गी मुखवस्त्रिका को मुंहपर वांधने का समर्थन नहीं करते? कभी नहीं। यही क्यों
और भी बहुत से प्रमाण है। देखिएगा | श्री हेमचन्द्राचार्यजी के रचनानुसार उदयरत्नजी ने अपने भाषा काव्य में ६६ वीं ढाल की चौथी गाथा में कहा है:" मुँहपत्तिए मुखवांधीरे, तुम वेशो छो जेम गुरुणी जी तिममुखड्दुबाईनेरे, विसाएकेम गुरुणीजी । साधु विन संसार मेरे, क्यारे को दीठा क्या गुरुणीजी"
यदि पहले मन्दिरमार्गियों में मुखवस्त्रिका मुखपर बांध ने की चाल न होती तो इस प्राचीन रचना में " मुखपतिए, मुखवांधीरे' का वर्णन नहीं होता । वल्कि इसके स्थान में "मॅहपत्तिए हाथ राखीरे" का वर्णन किया जाना । और भी सामाचार्य के शिष्य विनयचन्द्रजी ने निजकृत "सुभद्रासती के पंच ढालिया नाम्नी पुस्तिका में इस प्रकार कहा है"तू जैन यति गुरु माने छे, तूं तप करे बहु छाने छे। रहता मे ले वाने छे ।। २ ।।सु. ते भिख्या ले घर अण जाणजी, नित पीता धोवण पाणी।
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मुखवस्त्रिका |
तूं श्रावका हुई सुगवाणी ॥ ३ ॥ सु. तूं धर्मकारण मुँह बांधे पिण नयां नयण तूं सांधेछे ! तू नचीती पति के खांधे छे ॥ ४ ॥ सु.
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और कवि पुण्यविलास यतीजी ने " मानतुङ्ग मानवती” का रास बनाया उसकी ४८ वीं ढाल के ऊपर दोहे में कहा है
[३१]
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केइ भणे केइ अर्थ ले, केवांचे सूत्र सिद्धान्त । मुँहडे बांधी मुहपत्ती, मोटा साधु महन्त
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1 यह तो हुई मन्दिरमागियों के धर्म गुरुश्रों के मत की वान अब इस ही संप्रदाय के श्रावकों की कथा भी सुन लीजिए
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मुखस्त्रिका पर मन्दिरमार्गी श्रावकों की सम्मनिएँ
मन्दिरमार्गी बान्धवों ! मुखवस्त्रिका को मुखपर बांधने के सम्बन्ध में हमने आपके माननीय सूत्रों, श्राग्रन्थों, और धर्म गुरुओं की वाणी को ही हाथ में रख कर सच्ची सच्ची विवेचना की है । और वह इसलिए कि, आपको जब अपने ही ग्रन्थ हमारी दलीलों को सच्ची वतारहे हैं तो ऐसी दशा में मुखवस्त्रिका को मुखपर बांधने को मानने में आपको सदेह ही क्या हो सकता है ! कुछ नहीं । अव मैं आप को यह बताने के लिये तैयार हूं कि, आपके श्रावक इस विषय मैं क्या कहते हैं ! देखिये ! ऋषभदासजी ने स्वनिर्मित ग्रन्थ " हित शिक्षाने रास " में इस प्रकार कहा है:" मोन करी मुख बांधिए आठ पड मुखकोशोरे "
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[३२]
मुखवास्त्रिका। उन्ही महाशय ने उक्त ग्रन्थ की द्वितीयावृत्ति में पुनः यों कहा है:" मुखे बांधी ते मुहपति, हेटे पाटो धारि । अति हेठी डाढ़ी थई; जोतर गले निवारी ॥ ३॥ एक काने धज सम कही, खमे पछेड़ी ठाम । केडी खोशी कोथली, नावे पुण्य ने काम ॥ ४ ॥
अर्थात् मुखवस्त्रिका तो वही है जो मुंहपर वांधी जाय । यदि वह मुख के नीचे रहे तो पाटे के समान होजाती है
और ज्यादह नीची लटकी रहे तो दाढी की समता करने लगजाती है। और गले में होतो 'जोत । सी दिखाई देती है। एक कान में लटकावे तो वह ध्वजा के सदृश होजाता है। कंधे पर रक्खी जाय तो वह पछेवड़ी सी दिखाई देगी। और यदि कमर में खोसी जायगी तो कोथली कहलाएगी और इस तरह अन्य स्थानों में रखने से अर्थात् मुंहपर न बांधने से उसका पुण्य भी नहीं होगा।
श्रव हम अन्य मतावलम्बियों के ग्रन्थों के प्रमाण देकर भी इसकी सत्यता बताना चाहते हैं। अन्यमतावलम्बियों के धर्मग्रन्थों से भीप्रमाण
ऊपर हम जैन ग्रन्थों के अनेक प्रमाण देकर पाठकों का संदेह दूर कर चुके है । परन्तु अब हम अन्य धर्मावलम्बियों के ग्रन्थों से भी प्रमाण उद्धत करते हैं। जो विपय सर्व साधा रण पर विदित होता है उसका उल्लेख अन्य धम्मों के ग्रन्थों में भी पाया जाता है, यही बात मुखवस्त्रिका के सम्बन्ध में भी है अर्थात् जैन श्वेताम्बर मखवस्त्रिका मुंहपर वांघते हैं इसको सर्व धर्मावलम्बी जानते हैं।
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वृहदू-मुखवस्त्रिका निर्णय
चित्र परिचयके लिये, बन्दनेके लिये नहीं।
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प्रश्नचद्र राजऋषिको राजसम्बन्धी सन्देश।
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मुखवत्रिका |
[ ३३ ]
वैष्णवों के धर्म ग्रन्थों के प्रमाण शिवपुराण के इक्कीसवें अध्याय के पच्चीसवें श्लोक में जैनसाधु का वर्णन इस प्रकार किया है ।
हस्ते पात्रं दधानश्च, तुण्डे वस्त्रस्य धारकाः । मलिनान्येव वासांसि धारयन्तो ऽल्प भाषिणः ।। २५ ।। श्रर्थात् जैन साधु हाथों में पात्र और मुखर वस्त्र धारण करनेवाले, मलीन वस्त्रवाले और अल्प भाषी होते है । और भी देखिए ! श्रीमाल पुराण के तहत्तर वें अध्याय का ३३ वां लोक इस प्रकार है ।
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" मुखे दधानो मुखपतिं विभ्रो दण्डकं करे । शिरसो मुण्डनं कृत्वा, कुक्षौ च कुंजिकां दधत् ॥ ३३ ॥ अर्थात् जैन मुनि मुखपर मुखवस्त्रिका बांधने वाले, वृद्धाव स्था होने से दण्ड धारण करनेवाले और शिर मुंडाकर कांख मेंघा ( जीवों की रक्षा के लिये एक ऊन का गुच्छा ) रखने वाले होते हैं । इस के अतिरिक्त मुख पर सुखवस्त्रिका बांधने का प्रमाण ' अवतार चित्र' में इस प्रकार लिखा है :छन्द पद्धरी नित कथा यज्ञ घातक निदान, धरि नयन मंदि अरिहंत ध्यान । सब श्रावक पोषादि वश साधि, मुखपट्टि रुद्ध अरंभ उपाधि || अर्थात् जैन मुनि प्रतिदिन कथा करनेवाले, पशुयज्ञों का
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[ ३४ ]
मुखपत्रिका
निषेध करनेवाले, नेत्र बन्द कर अरिहत का ध्यान करनेवाले सव श्रावकों को पोपादि व्रत करानेवाले, मुखवस्त्रिका से मुँह बांधनेवाले और पचन पाचन अग्नि आदि श्रारंभ से अलग रहनेवाले होते है ।
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जो बात शास्त्र सम्मत है और प्राचीन काल से प्रचलित है उसका वर्णन तो केवल जैन शास्त्रों में ही क्या किन्तु अन्य धर्मों के ग्रन्थों मे भी विशद रूप से मिलना है । पाठक ' श्रय तो श्राप जान ही गए है कि, वैष्णवों के ग्रन्थ भी मुख वस्त्रिका मुँहपर वार्धन की शहादत दे रहे हैं। इस से बढकर हमारी सत्यता का उदाहरण और क्या हो सकता है ? आप ही कहिए ?
भिन्न २ मतावलम्बी यूरोपियन सज्जनों की साक्षी
हम विदेशी विद्वानों एवम् भिन्न भिन्न मतावल - स्वियों की राय इस विषय में क्या है, यह प्रगट करना चाहते हैं " दुनिया के धर्म" नामक पुस्तक में जॉन मेडिक एल एल डी की सम्मति पृष्ट १२८ पर उद्धृत है कि, "यति" लोग अपनी ज़िन्दगी को निहायत मुस्तकिल मिजाज़ी से वसर करते हैं । और वे अपने मुँह पर एक कपड़ा बाधे रसते हैं जो कि छोटे २ कीड़े वगेर को अन्दर जाने से रोक देता है'।
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•
फिर भी देखिये । " एन्साइक्लोपीडिया ” नामक छटी पुस्तक के २६८ वै पृष्ट पर इस प्रकार लिखा है - " यति लोग अपनी जिन्दगी निहायत सत्र और इस्तकलाल के साथ बसर करते है। और एक पतला कपड़ा मुंहपर बाधे रखते है और एकान्त में बैठे रहते है "" ।
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मुख्वत्रिका।
[३५]
इस ही प्रकार मिस्टर ए, एफ रडलाफ होर्नले पी एच डी ने भी उपासक दशाङ्ग सूत्र का अनुवाद अग्रेजी में किया है, उस पुस्तक के पृष्ट ५१ पर १४४ वे नम्वर के नोट में उद्धत है'-"मुखपति, जिसको संस्कृत में मुखपत्री कहते है - र्थात् मुख का ढक्कन । जिससे, सूक्ष्म जीव उड़ने वाले मुख के अन्दर प्रवेश न कर सकें इस लिये छोटासा कपड़ा मुख पर वाधेते हैं, उसे मुखपति कहते हैं" ___ उपरोक्त प्रमाण कितने जबरदस्त हैं क्योंकि प्रथम तो उनके लेखक विदेशीय विद्वान है जिनको किसी का पक्ष नहीं दूसरा उन्होंने मन्दिर मार्गियों के यातियों (साधुओं) के लिय ही लिखा है । कहिये पाठक ? अव भी क्या मन्दिरमार्गी साधु एवम् श्रावक मुखवस्त्रिका को मुहपर वाधने से इनकार कर सकते है ? कभी नहीं।
फिर देखिए । “ भारत वर्ष का इतिहास " तीसरे और चोथे स्टॅण्डर्ड के लिये । जिसके पृष्ट २६-२७ पर इस प्रकार का उल्लेख है:
जनै मन और महावीर की कथा जैन मत जैनी के तीन रत्न और तीन अनमोल शिक्षा है। अर्थात् सम्यग् दर्शन सम्यग् शान और सम्यग् चरित्र! तीसरे रत्न में बुद्ध के पांच नियम है ! १ झूठ नही वालना २ चोरी
नहीं करना ३ विषय वासना नहीं रखना ४ शुद्ध रहना _ ५ मन वचन और कर्म में स्थिर रहना ६ जीव हिंसा - नही करना ! पिछले नियमों को जेनी साधु बड़े यत्न से मानते ___ है ! कही छोटे से छोटे कीडों को भी वे दुख.न दें या मार न
डाले इसलिए वे पानी को छान के पीते हैं ! और चलते समय
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[३६]
मुखवत्रिका।
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झाड वुहार के आगे पाव धरते हैं! कही सांस लेने में कोई कीट पतंग मुँह में न चला जाये इसलिए वे अपने मुँहको कपड़े से ढांके रहते हैं " शास्त्रीय एवम् अनेक ग्रन्थों के प्रमाण देने में हमने कोई बात उठा नहीं रखी परन्तु अव हम प्राचीन चित्रों के जो व्लाक चित्र तैयार कराए हैं व पाठकों के आगे रखना चाहते हैं।
चित्रो द्वारा प्रमाण पाठकों को यह बतलाने की कोई आवश्यकता नहीं है कि, संसार में चित्र कितने मूल्य की वस्तु है। पुरातत्व वेत्ता
ओं को चित्रों एवम् शिलालेखों ने ही प्राचीन इतिहास का विशेष पता दिया है। इतिहास को अंधकार से प्रकाश में लाने के लिए चित्रों ने जितनी मदद की है उतनी किसीने नहीं। यदि प्राचीन चित्र उपलब्ध न हुए होते तो यह पता कहां से चलता, कि, किस समय कैसा वेय था और किस धर्म के लोग किस तरह का पहनाव रखते थे । और यह चित्र किस समय का है इत्यादि।
हमारे कथन का यह भाव है कि, चित्र सामाजिक परि स्थिति के अनुकूल बनते है । अर्थात् जिस समय जैसी वेप भूपा समाज में होती है उसके अनुकूल ही चित्र बनते हैं। और इसीलिए समय और इतिहास की खोज में लोग चित्रों को वहुत प्रमाणिक मानते हैं।
हम भी मन्दिर मार्गीय साधु एवम् श्रावका और अन्य पाठको के सम्मुख अाज वैसे ही प्राचीन चित्र रखरहे हैं जो
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मुखवस्त्रिका।
[३७]
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मुखवस्त्रिका को मुख पर वांधने का प्रमाण देंगे । यदि पूर्व काल में मुखवस्त्रिका मुखपर न बांधी जाती तो ऐसे चित्र कैसे तैयार हो सकते थे ? और इस का मन्दिर मार्गियों के पास क्या जवाब है? वे इन चित्रों को झूठे प्रमाणित नहीं कर सकते।
वाचक वर्ग ! चित्र नम्बर १ को देखिए । यह चित्र सन् १६११ की अप्रेल मास की 'सरस्वती के पृष्ठ २०४ के चित्र का ब्लाक तैयार होकर छपा है। यह चित्र सप्तदश आचार्यो का है। इसमें का बारहवां चित्र आदिनाथ अर्थात् भगवान् ऋषभदेव का है जिनके मुवारविन्द पर मुखवस्त्रिका बंधी हुई है । कई चित्र, चरित्र और कथा के आधार पर चरित्र नायक के देहावसान के पीछे भी तैयार होते है इसको हम मानते हैं। परन्तु चित्रकार लोग चित्र प्राचीन ग्रन्थों में जैसा वर्णन मिलता है उसी के अनुसार बनाते हैं । उसमें प्राकृति भले ही ठीक नहीं मिलती हो परन्तु वेप-विन्यास में कुछ फर्क नहीं रहता है। इसही प्रकार उपरोक्त चित्र भी काल्पनिक हैं परन्तु हमारा अभिप्राय केवल इतना ही है, कि पहले मुखवस्त्रिका मुहपर साधु सन्त वांधते थे तभी तो इस चित्रकारने भी मुंह पर मुखवस्त्रिका वंधे हुए चित्र का दृश्य दिखलाया। मुखवस्त्रिका मुंहपर
श्रादिनाथ भगवान् को ऊपर हमने अपनी ओर से श्राचार्य नहीं लिखे हैं । यह भूल तो 'सरस्वती' सम्पादक की है। हमने तो चित्र जिस नाम से छपा उसको उमीके अनुसार केवल मुखवत्रिका के प्रमाणार्थ लिखा है।
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[४०]
मुखवत्रिका ।
एक और उदाहरण लीजिये! चित्रशाला प्रेस पूना से प्रकाशित होनेवाली “सचित्र अक्षर लिपि" नानी पुस्तक में जो यति का चित्र दिया है वह भी प्राचीन श्रादर्श के अनु सार वना है, अर्थात् यति के मुंह पर मुखवस्त्रिका बंधी हुई है देखिए ब्लाक चित्र नम्बर ७ ।
कहिए पाठक ! क्या अव भी किसी प्रमाण की आवश्य कता है ! हर प्रकार से हम यह सावित कर चुके हैं, कि मुखवस्त्रिका मुंख पर वांधने ही की वस्तु है हाथ में रख ने की नहीं। और साथ ही हम यह भी समझा चुके हैं, कि इसको हाथ में रखने से कोई लाभ नहीं । अव हम आगे मुखवस्त्रिका को मुखपर बांधने में स्वास्थ्य की दृष्टि से क्या २ लाभ है यह बतलायंगें।
स्वास्थ्य की दृष्टि से भी लाभ मुखवास्त्रिका का उद्देश्य प्राणियों की रक्षा का तो है ही परन्तु इससे स्वास्थ्य-दृष्टि से भी बहुत लाभ हैं । अर्थात् इसके मुखपर वंधी रहने से जो मनुष्य सुख के द्वारा भी श्वास लेते हैं वे अनेक भयानक रोगों से वचजाते है जिन के प्रमाणार्थ नीचे कई डाक्टरों की राय उदृत करते है। Doctor James cout Ph.D...
F.A.S. writes. ___ " By an effort of the Will in the one direct trou esercised in the private and in public, Keep the mouth shut and breathe through the rose,
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वृहद्-मुखवस्त्रिका निर्णय
चित्र परिचयके लिये, बन्दनेके लिये नहीं।
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मुखवस्त्रिका।
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“There is nothing very occult or mysterious about this direction. In fact, it is very prosaic and common-place. But if you want to ward off disease, increase your vital and virile energies, increase the purity of your blood, stimulate as well as perfect the heart's action, and supply the hrain and the sensory, motor, and vegetative or sympathetic nervous systenis with the materials necessary to do their work “Keep the mouth shut" and breathe through the nose l'hat conduces to health, " self control," and well-being.. ...And last, though not least, the “ Will to do and dare and the grit to accomplish things is perfected thereby”... ..Suffice it to say, you will notice that all really strong and able men, men of force, firmness, strength of will, and dominating their fellows, and who, within historic times, and within your our experience, made their mark in science, Politics, religions, the army or commerce, have been and are “Physically and mentally too"-men who have “ Kept the mouth shut” ..... Keep your mouth shut, and only open it when you want to clean your teeth, partake of food or to speak, and then only when you have thought over
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[22]
मुखवस्त्रिका।
and the motive what you are to say No inore “implusive spurts,” no (vords of unyer or impatience, and wounded self conceit. Tlie open mouthed mly have many good qualities yet they have 110 " tenacity and staying Power "... . The lack of success is due to vant of one of the first essentials of self control, “leserve" the silent tongue physiognomically indicated by the shut mouth
“ Now if the vital powers are improved, health maintained and conserved, disease resisted, life made more enjoyable and prolonged, by the simplc expedient of keeping the “ mouth shut, " is it not well worth trial? If you add to this that the practice conduces to Firmness, Decis1011, Perseve. rance, Fortitude, Concentration, and strength of will, the "exercise” becoides a delighful and pleasant necessity'. At onc commeuce the practice, then by perseverance and constant watchfulness it vul become second nature' autoinatic and will be casried out without the consc10119 suparoision of the ordinary every day mind.'
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मुखवस्त्रिका।
[४३]
उक्त इङ्गलिश का हिन्दी अनुवाद डाक्टर जेम्स स्काट साहब फरमाते हे "सूरत या ज़मार या चैतन्य को एकस्थित करने के लिए मुंह को वन्द कर नाक द्वारा सांस लेना यह पहला नियम है । इस नियम में कोई छिपा हुआ भेद नहीं है। वास्तव में यह कोई कठिन वात भी नहीं है। यदि श्राप चाहते हो कि हम स्वस्थ हो जायं, हमारी मस्तिप्कशक्ति बहुत अधिक बढ़जाय, ( आंतरिक और वाह्य दोनों ही) शरीर में पवित्र साफ खून पैदा हो, चित्त में स्थैर्यता उत्पन्न हो, मस्तिष्क की चैतन्यता और विचारशक्ति की स्थिरता, शरीर की सम्पूर्ण अस्थियों और जालों की मजबूती इत्यादि बातें चाहते हो तो श्राप श्वास नाक के द्वारा लेने का नियम स्वीकार करें। यह नियम तन्दुरस्ती और इस्तकलाल को ताकत देता है, और बढ़ादेता है । यह चित्त की स्थिरता में भंग डालने वाले नियमों को-विचारों को कूड़ा करकट की भांति नीचे विठा देता है।
श्राप जानते होंगे कि जितने उच्च मस्तिष्क, बलवान या संतोषी और अपनी वात के धनी ऐतिहासिक समय में मेरे और आपके अनुभव से विद्वान, राजनीतिक धार्मिक शूरवीर और व्यापारी हुए हैं। और उन्नत बने हैं। वे केवल संतोष से खामोशी अख्तियार करने से । मुंह को हमेशा वन्द रखो। सिर्फ उस वक्त खोलो जवकि तुम्हें खाना खाना हो या दांतो को साफ करना हो अथवा किसीसे बात चीत करनी हो । उस घनत मत खोलो जव कि तुम्हारे मुंह से कोई वात ऐसी
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[ ४४ ]
मुखवत्रिका |
निकलने को हो जिससे कि हृदय धड़कने लगे । और तवि - यत पर रंज आय । मुंह को खुला रखने में कई सूरतें बहतरी की हैं, लेकिन वह कायमुल मिजाजी करार दिल में हो तो कामयाबी ( सफलता ) की पहली सीढ़ी दिल के करार के साथ जवान रोकना या खामोशी है ।
वैद्यक विधान से भी मुंह को बन्द करना चाहिए। मुंह के बन्द करने से दिमाग में रोशनी और शारीरिक तंदुरस्ती बढ़ जाती है। ज़िन्दगी आराम से गुजरने लगती है। यदि आप इन सब बातों से भी अधिक लाभ चाहते हों तो विश्वास वल अर्थात् खयाल का जमाना संतोष और इस्तकलाल दिलेरी और दिल को कायम रखने को हाथ से न छोड़ें। जब आपको इस ताकत के बढ़ाने में कुछ मजा और खुशी हासिल होने लगेगी तो सूरत या इन्सान का बोलना इस नाम को छोड़ कर दूसरे नामसे मोसुम हो सकता है यानी कहलाई जा सकती है। अर्थात् परमात्मा से मिल जाना या परमात्मा कह लाना ।
पुनः अन्य अंग्रेज विद्वानों की सम्मतियें पढ़िये.
The religions of the world by John Murdock. L. L. D. 1902 page 128
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"The yatı has to lead a life of continence, he should wear a thin cloth over his mouth to prevent insects from flying into it "
Chamber's Encyclopaedia Volume VI London 1906, Page 268:
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मुखवत्रिका
[84]
" Thc yuti to lead the life of abstinence and continence, be should weai a thin cloth over his mouth . Sit »
Mr, A F Rudolf Hoernle Ph‘D Tubingen, in luis English translation of Upasnyadasang, Vol. II Page 51, Note No 144, writes
- Text muhapattı, Skr. mukba Patri. 'lit, a leaf for the mouth,' a small piece of cloth, suspender over the mouth to protect it against the intrance of any living thing
light of farve fitinaples to the foullic health. The principle of applying prubahatle 1 the covering over the mouth, 18 to protect the living germs that are present in the atmosphere, but as regards the medical point of view the covering over the mouth is also to protect ourselves from many diseases which are due to impurities of air - v Effects of dust and solid impurities --
Dust consists principally of mineral particles of formed or unformed organic matter of animal or vegetable origin e g Epithelia, fibres of wool or cotton, or particles of animal or vege
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(38]
मुखवस्त्रिका।
table tissues The effects depend on the amount iphaled and on the pbysical cruditions of the particles, whether sharp-pointed or rough etc Iley always injure health and the principal affections arising therefrom are cattarrh, Bronchitis, Fibroid, Pueumonia Asthma and Emphysema The most important synıptoms of lung diseases produced by inbulation of dust are Dyspnea and Ex petoration.
Sffeels of stessieneled emfuulies — Workers in rags and wool suffer similarly from dust Dust from fleeces of wool Las caused anthrar Milla-stone cutters, stoue--masons, pearl cutters, sandpaper makers, knife-grinders millers, hairdressers, winers fur-dyers, wear ers etc all suffer from diseases of lungs caused by the inhalation of dust and other suppen. ded matters Brass, founders ubale fumes of oxide of zinc and suffer from diarrhea, Cramp ete Match-makers inhala fumes of phosphorus and suffer from necrosis of the lower pair Besides these, infective matter from di cases like Typhoid fever, Measles, Small-pox, Tul er.
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Jagiaan
[es]
culosis etc are dissiminated through the air
probably always in the form of dust or Affects of gases and talutele offluvia (a) Hydıochloric acid vapour causes irutation
of lungs and diseases of eye (b) Carbon disulphide vapours cause headache,
muscular pain and depression of the
nervous system (c) Animodia causing mutation of coujuntiva (d) Carburatted Hydrogen causing headache,
vomiting, convulsiv'is etc when inbaled in
large quantity (e) Carbon monoxide imparts a cherry red
colour to the blood, and by interfering with o`ygenation, may cause dialı hea, lieadache, nausen, muscular and nervous
depression, (f) Effluvia from Buch-fields, effluvia frcin
offensive trade, tanperies fat ond tallow factories gut scraping, bone-boiling, papermakuug etc Effects of gas from sewers and house-drains aro durrhen, gastio
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मुखवस्निका।
intestinal effects, sure thicat, diphtheria, aveanna and constant ill- hcalth, Diseases like cholera, enteric flvei erysipelas, measles scarlet fever etc are aggravated
by sewer gas. 4 Effects from decomposing organic carcases Cause out-breaks of diarrhea and dj seutery
Therefore, gentlemen, pure air is absolutuly necessary for healthy life, and perfect health can only by maintained, when 111 addition to other requirements, thǝre is an abundant supply of pure air, Every one is aware that wlule starvation kills after days, deprivation of ar kills in a few minutes, Health and disease are in direct proportion to the purity or otherwise of ill--health being largely due to impurities of the air. Hence to apply Mubpatti over the mouth is taught by thiee great anthonies --Nature, jam principles and quedical view (1) Nature teaches human beings to avoid them
selves from the direct aitack of diseases i, e. for example, whenever we pass by the side of di-composing circas, at once our hruni
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वृहद मुग्ववस्त्रिका निर्णय
(चित्र परिचय के लिये, बन्दनेके लिये नहीं)
पाचो पाडव शत्रुञ्जय पर्वत पर सवारा किये हुये हैं।
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मुखवस्त्रिका।
[2]
dels our hand to search out for a hand-kei - chief and to apply over the mouth and nose so that bed nuisance may not injure tho
health ( 2 ) Ja'n principles teach us tɔ apply MUHAPATTI
13 alieady discussed in Shastras (3) Vedical teaches us to avoid from all the
diseases which can be acquired from air and dus is alieady discussed above, Soms of my friends will agree that why MUHAPATTI should not be applied to nose, because nose is an organ of iespiration The reply is that natuio has fuinishel the nose with hair which ac The guard of foreign-bo ly from the outside हिन्दी अनुवादः--
जेन सिद्धान्तों की दृष्टि से स्वास्थ रक्षा पर विचार,
मुंह पत्ति धारण करने का (मुंह पर वस्त्र बांधने का) उद्देश यह है कि वायु में जो सजीव प्राणी रहते हैं, उनकी रक्षा हो, और आयुर्वेद की दृष्टि से भी वायु में अनेक खराबियां रहने के कारण जो वीमारियां पैदा होती है उन वीमारियों से अपने शरीर की रक्षा इस मुख वस्त्रिका के धारण करने से हो सकती है।
(१) वायु में रहे रज (धूल ) तथा दूसरे ठोस परिमाण से हानियां:
धूल में खनिज पदार्थों के टुकड़े व सजीव तथा गम्त स.
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[४०]
मुखवस्त्रिका।
म्बन्धी अनेक पदार्थ रहते है यथाः- फिथेलिया, ऊन या रूई के रेशे व सजीव प्राणियों के निर्जीव शव के टुकड़े व सचित वस्तु के शरीर सम्बन्धी नसें व श्रातें या हड़ियों के टुकड़े। ___इन सव खरावियों का असर श्वासोच्छ्वास के न्यूनाधिक परिमाण पर व इन वस्तुओं की प्राकृतिक दशा पर निर्भर है। (अर्थात् ये वस्तुएं तीखी नोक वाली है, या चोठी नोक वाली इत्यादि)
ये सदा अपने स्वास्थ्य को विगाड़ देती है और इनसे मुख्य बीमारियां केटेग, ब्रोंकाइटिस, फिवरोइड निमोनिया एस्थमा. इम्फिसिमा इत्यादि पैदा होती है।
रेणु मिश्र वायु के सेवन से फेफड़े की बीमारियों के खास चिन्ह डिस्प्निया तथा पिटारेशन हैं।
२ वायु प्राश्रित रही हुई अन्य ग्बगवियों का असर
इसी भांति चिथड़ों में व ऊन में काम करन वाले रज से हानि उठाते है । ऊन के गुच्छों की धूल से पन्क्स पैदा होता है। घट्टी टांचने यासिलावट, मोती काटने वाले या जमाल कागज बनाने वाले, चाक सुधारने वाले, चक्की चलाने वाले. वाल काटने वाले. खान खोढने वाले. ऊन रंगने वाले,कपड़ा बुननेवाले श्रादि सब रज मिथित दुसर परमाणु युक्त वायु के सेवन से फेफड़े सम्बन्धी अनेक बीमारियों से पीड़ित रहत है। उदाहरणार्थ:-पीतल बनाने वाले जस्त ( in 1 ) श्राक्साइट (oude) के कणका श्वास लेते हैं । और उनको डायरिया या क्रम्प (crn Imp) हो जाता है । दियासलाई बनाने वाले फास्फरस की चिनगारियों का श्वास लेते हैं. और उनके जबड़ों में नेक्रोमोस हो जाता है। इनके सिवाय चेपी रोग भी लागू हो जाते है। जसे टाईफान्ड, उवर, मस माना, टयूवर केटिम इत्यादि जो कि हवामें हमेशा रजम्प में वितरित होते है।
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३-हवा में गन्दगी व अन्य मैली हवाओं का असर'
(अ) हाइड्रोक्लोरिक एसिड की भाप फेफड़ों को बिगाइनी है, और नेत्रों के रोग पैदा करती है।
(व ) कारवन डायाक्साइड (Droude) की भाप मस्तिक या नसों में दर्द व रगों में शिथिलता पैदा करती है।
(स, एमोनिया (कंजक्टाइवा) में दुर्विकार उत्पन्न करता है।
(इ) कारव्यूरेटेड हाईड्रोजन मस्तिष्क वमन, ऐंठन, इत्यादि(जव ज्यादा परिमाण में सूघ लिया जायनो)पैदा करती है।
( ई ) कारबन मोनोक्साइड खून का रंग हलका लाल कर देता है, और आक्सीजनेशन के मिलने से डाइरिया, मस्तिष्क नोसिस (उल्टी) नसों में तथा रगों में शिथिलता पैदा करता है।
ईटों के अवाड़े की हवा दुर्गन्ध पदार्थों के व्यापार की हवा चर्बी की फेक्टरियों की हवा, पाते साफ करने की हवा, हड्डियों को उबालने की हवा, कागज बनाने की हवा, नालों व गटर की हवा से डायारया, प्रांतों में दुर्विकार, कुष्ट रोग, डिप्थोरिया, एनिमिया, और सदा-कुस्वास्थ्य का रहना इत्यादिवीमा रियां होती हैं। परनालों की तथा गटर की हवा से हैजा, पा. क्षिव ज्वर, एरिस,पिलस, मल, लाल वुखार इत्यादि बीमारियां वढ़जाती है।
४-प्राणियों के सड़ते हुए शरीरों की हवा से डायरिया या डिसेन्ट्री पैदा हो जाती है।
अतः सजन गण ! स्वास्थ्य रक्षा के हेतु शुद्ध व स्वच्छ वायु अत्यावश्यक है । स्वास्थ्य अच्छा तव ही रह सकता है, जब अन्य पदार्थों के सिवाय शुद्ध हवा का परिपूर्ण भाग वि. द्यमान है। यह बात हर एक को विदित है कि यदि भूखों
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मरना अपने अन्तिम जीवन को क्षय करना है। परन्तु वायु से वंचित रहना तो थोड़े ही समय में तमाम काम (जीवन ) खतम कर देता है।
अच्छा स्वास्थ्य शुद्ध हवा पर उतना ही अधिक निर्भर है, जितनी अधिक गन्दगियों से वीमारियां पैदा होती है। अर्थात जितनी ज्यादह वायु में खराविया रहती है, उतनी अधिक वीमारियां भी पैदा होती है । इसलिये मुह पर वस्त्र धारण करना इन तीन सिद्धान्तों से पुष्ट होता है । प्राकृतिक, जैन और वेद्यक।
(१) प्रकृति प्राणी मात्र को बीमारियों से रक्षा करना सिखाती है। जैसे-यदि हम कहीं एक सड़ती हुई लाश के पास से होकर गुजरे तो एक दम अपना दिमाग अपने हाथ को जेवमें से रूमाल निकालने के लिये तथा उसको नाक से श्राड़ा लगाने के लिये प्रेरित करता है । ताकि दुर्गन्ध हवा स्वास्थ्य को न विगाड़ दे।
(२) मुंहपत्ति को धारण करने के विषय में जैन शास्त्रों में परिपूर्ण रूप से व्याख्या तथा पुष्टि की गई है।
(३ वैद्यक शास्त्र भी हमको यही सिखाता है कि उपरोक्त वायु के आश्रित रेणु तथा दुर्गन्ध से जो वीमारियां पैदा होती है, उनसे अपने आपको वचाओ।
कतिपय मित्र यह तर्क करेंगे कि मुंहपत्ति को नाक पर क्यो नहीं लगाना चाहिये । क्योकि नाक भी तो वायु सेवन का द्वार है। उत्तर में इतना ही लिखना यथेष्ट है कि प्रकृति ने नाक में बाल रखे हैं। जिनसे बाहरी खराबियां रुक जाती है
"दुनियां के धर्म" अर्थात दुनिया की मजहवी किताब जो कि "जॉनमडीक पल एल डी १६६२ में लिखित पुस्तक के
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१२८ पृष्ठ पर लिखते हैं, कि “यति लोग अपनी जिन्दगी को निहायत मुस्तकिल मिजाजी से वसर करते हैं और वह अपने मुह पर एक कपड़ा वाधे रखते हैं, जो कि छोटे २ कीड़े वगैरः को अन्दर जाने से रोक देता है।
पुनः इन्साइक्लो पेडिया पुस्तक नं० ६ पृष्ट नं० २६८ सन् १६०६ में लिखते है कि यति लोग अपनी जिन्दगी निहायत सवर और इस्तकलाल के साथ चसर करते हैं और एक पतला कपड़ा मुह पर वांधे रहते हैं, और एकान्त में बैठे रहते है।
इसी प्रकार मिस्टर ए पफ रडलाफ होनले पी एच, डी. व्य विनजेन ने 'थी उपासक दशांगजी' सूत्र का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया है, उस पुस्तक के पृष्ट ५२ नोट नम्बर २४४ में वह निम्न लिखित प्रकार से है, पढ़िये।
"मुखपत्ति" जिसको सस्कृत में 'मुखपत्रि' अर्थात् मुख फा ढक्कन जिससे सूक्ष्म जीव उड़ने वाले मुख के अन्दर प्रवेश न कर सके, इसलिये छोटा, सा कपड़ा मुख पर बांधते हैं, उसे मुख पत्ति कहते हैं।
पुनः देखिए ! महात्मा मोहनदास करमचन्द गाधी विरचित आरोग्य दिग्दर्शन पृष्ठ १२५२ हवा के विषय में लिखते हैं कि (हमारी कुटेवों से हवा कैसे खराव होती है और उसे खराब होने से कैसे बचाया जा सकता है, यह वात हम जान चुके । अब हम इस वातका विचार करते हैं कि हवा कैसे ली जावे) __हम पहले प्रकरण में लिख पाये है कि हवा लेने का मार्ग नाक है,मुंह नहीं। इतने पर भी वद्भुत ही कम ऐसे मनुष्य है जिन्हे श्वास लेना पाता हो । वहुत से लोग मुंहसे श्वास लेते हुए भी देखे जाते हैं। यह टेव नुकसान करती है। बहुत ठंडी हवा
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जो मुँह से ली जाय तो प्राय. सरदी हो जाती है, स्वर बैठ जाता है, हवा के साथ धूल के कण श्वास लेने वाले के फेफडों में घुस जाते हैं और फेफडो को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं। पुसका प्रत्यक्ष प्रभाव विलायत के शहरों में तुरंत पढ़ता है,वहा पर बहुत कल कारखानों के कारण नवम्बर मास में बहुत ही फौग-पीली धूमस-होती है। उसमें वारीक बारीक काले धूल के कण होते है । जो मनुप्य इस धूल के कण-भरी हवा को मुंह स लेते हैं उनके थूक में वह देखने में पाती है। ऐसा अनर्थ न होने के लिए बहुतसी स्त्रियाँ जिन्हें नाक से श्वास लेने की श्रादव नहीं होती चेहरे पर जाली बाँधे रहती हैं । यह जाली चलनी का काम देती है। इसमें होकर जो हवा जाती है वह साफ जाती है। इस जाली को काममें पाये वाद देखा जाय तो उस में धूल के कण मिलते हैं। ऐसी ही चलनी परमात्माने हमारे नाक में रक्खी है। नाक से ली हुई हवा गरम होकर भीतर उतरती है। इस बात को ध्यान में रख कर प्रत्येक मनुग्य को नाक के द्वारा ही हवा लेना सीखना चाहिये । यह कुछ मुश्किल नहीं है। जिन्हें मुंह खुला रखने की श्रादत पड़ गई हो उन्हें मुंह पर पट्टी बाध कर रात में सोना चाहिये । इससे लाचार उन्हें नाक से ही श्वास लना पड़ेगा।
वैद्यक की राह से भी श्रारोयन्ता के लिये भी मुख वांधना अच्छा माना है।
परिशिष्ठ अब यह ग्रन्य समाप्त होगया है परन्तु मेरे जो अन्तिम उद्वार है वे भी में अपने विचार शील पाठकों पर प्रकट कर देना चाहता हूं। पाठकों ! और कामों में उच्छ्व लना विशेष हानि कर नहीं परन्तु धार्मिक उच्छृङ्खलता तो किसी प्रकार
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भी अच्छी नहीं है। धार्मिक उच्छहलता से संसार में जितनी क्षति हुई है उतनी और किसी से भी नहीं हुई होगी, और उस क्षति की पूर्ति आज तक नहीं हुई।
वाममार्गियों के अश्लील पाचरणों एवम् दूपित ग्रन्थों ने आज तिहाई हिस्से की दुनियां को पथ भ्रष्ट कर रक्खी है। महाराज वेण को हुए आज कई हजार वर्ष होगए है परन्तु उसकी निन्दनीय प्रथाओं का अन्त अाज तक भी नहीं हुआ और जव तक उन्ही बातों से ग्रन्थों के पवित्र पृष्ठ रंगे हुए रहेंगे तव तक उन काअन्त होना कठिन ही नहीं बल्के असंभव है। ___यह सब धार्मिक उच्छृङ्खलताओं के ही तो परिणाम है। में पहले ही कह चुका हूं कि, भारत वर्ष शृद्धालु देश है। इस में अन्ध विश्वासियों का ही सदा से वाहुल्य रहा है। यहां पर समाज जिसको वड़ा श्रादमी मान लेता है फिर उसके कार्यों को वह श्रालोचना की दृष्टि से कभी नहीं देखता । चाहे वह किसी को तार दे, अथवा डूवो ही दे। चुपचाप उसका अनुः गमन करना ही समाज का कर्तव्य हो जाता है। और इसी लिए तो इस उक्ति का प्रादुर्भाव हुआ है "महाजनो येन गतः स पथा" अर्थात् महापुरुष जिस ओर होकर गए वही मार्ग है। और यदि महापुरुष ही उच्छृहल अथवा पथ भ्रष्ट हो जाएं तो समाज की क्या दशा होती है ? यही न, कि समाज पथ भ्रष्ट होजाता है।
यह देश धर्म का कीड़ा क्षेत्र है । यूरोप, एशिया इत्यादि देशों को धर्म की दीक्षा पूर्व काल में यहीं से मिला करती थी। यहीं के ऋषि मुनि और साधु सन्त सबके गुरु थे। और वे लोग द्वीपान्तर में परिभ्रमण कर धर्म प्रचार किया
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मुखवनिका।
करते थे। परन्तु इस भारत भूमि में अनीश्वरवादी और उच्छ हल धर्म नहीं ठहर सका । गोतम बुद्ध के सिद्धान्त कुछ ऊंचे थे परन्तु वे अनीश्वरवादी थे अतः अन्य देशों में घे भले ही अपने धर्म का झंडा गाड़ने में समर्थ हुए हों परन्तु भारत वर्ष में उनका झण्डा उखड़ गया। आज भारत में उनका अनु. यायी शायद कोई हो। ___इसीसे में कहता हूं कि धार्मिक ऊच्छलता कभी किसी दशा में अच्छी नहीं है। सनातन जैन धर्म की नीव अहिंसा पर खड़ी है उसमें हिंसा का प्रचार करना नितान्त भृल और अद्र दार्शता है। __ मेरे मन्दिर मार्गीय साधु महात्माओं सद्गृहस्थों! श्राप लोग मुखवस्त्रिका को मुख पर नहीं बांधकर हाथ में रखने में बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं। श्रसंख्य अदृश्य प्राणियों की हत्या का दायित्व अपने ऊपर ले रहे हैं । कोई शास्त्र इसमें सहमत नहीं है फिर आप क्यों नहीं मानते हैं। . मैने एक तरह से नहीं बल्कि हर तरह से सिद्ध कर दिया है कि मुखवस्त्रिका को मुख पर ही वांधना चाहिए । मैंने युक्ति चाद, शब्दार्थ, और शास्त्रों के निर्विवाद चीर वचन से सावित किया! आपके ग्रन्थों से सावित किया !! अन्यान्य धर्मावलम्बियों के ग्रन्थों से सावित किया!" और सावित किया स्वास्थ्य की दृष्टि से । अर्थात् श्रायुवेद और डाक्टरी पुस्तकों से इसको लाभ दायक सावित किया है।
कई कुतर्कवादियों का कथन है कि, नाक वायु सेवन का मार्ग है उसमें कृड़ा छार श्रादिन प्रवेश करजा इसलिए कु. दरत ने उसमे बाल उगाए है । इसी प्रकार हानि की सभा. वना होती तो प्रकृति मुंह की प्राड़ के लिए भी जरूर कोई चमड़े की पट्टी अथवा वालो की रचना करती।
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इसका जवाव यह है कि, प्रकृति ने जो होठों की रचना को है यह मुह का ढक्कन ही तो है। परन्तु कितनों ही की श्रादत मुंह खोलकर चलने की और मुंह से वायु ग्रहण करने की होती है ऐसी दशा में एक मुखवस्त्रिका ही दूपित वायु की रक्षा कर सकती है। ___ हम तार्किकों से यह पूछते हैं, कि कुदरत ने तो तुम्हारे शरीर का ढक्कन कुछ नहीं बनाया और तुम कपड़े क्यों पहन ते हो? पदरक्षो(पगरखी)इत्यादि की तुम्हें क्या आवश्यकता है?
मनुष्य मात्र का धर्म है कि प्रकृति के कामों में मदद करे। गन्दी हवा के परिहार्यार्थ सुगन्धित द्रव्यों का प्रयोग करते हैं । वर्षा शीत घाम की रक्षा के लिये नये २ प्रकार के मकानों
और वस्त्र आदि पदार्थों की मनुष्य रचना करते है। यह प्रकृति की मदद नहीं तो और क्या है ? ।
हम लोगों का कार्य समाज और जाति को उन्नति के मार्गों में प्रवृत्त करने और उनको धर्माचरण की शिक्षा देने का है। उसका पालन यथाशक्ति मैंने भी किया है अर्थात् एक उपयोगी विषय पाठकों को समझाने का प्रयत्न किया है । इसलिए कि उनको भूले हुए मार्ग में लाने का प्रयास किया है। परन्तु यदि इसके बदले में वे क्रोधित होकर मुझे गालियां देंगे तो मेरा क्या विगाड़ है उनकी क्षमता और उदारता प्रकट होगी
अव में अपने प्यारे पाठक पाठिकानों से प्रार्थना करता हूं कि मेरे शब्दों में कहीं कठोरता आगई हो तो श्राप लोग उन शब्दों के विनम्र और हितकारी भावों की ओर ही दृष्टिपात करते हुए मुझे क्षमा करदें।
ॐ! शान्ति !! शान्ति !!! शान्ति
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मुखवत्रिका।
करते थे । परन्तु इस भारत भूमि मे अनीश्वरवादी और उच्च इल धर्म नहीं ठहर सका । गौतम बुद्ध के सिद्धान्त कुछ ऊंचे थे परन्तु वे अनीश्वरवादी थे अत' अन्य देशों में घे भले ही अपने धर्म का झंडा गाड़ने में समर्थ हुए हो परन्तु भारत वर्ष में उनका झण्डा उखड़ गया। आज भारत में उनका अनुयायी शायद कोई हो।
इसीसे मैं कहता हूं कि धार्मिक ऊच्छड्सलता कभी किसी दशा में अच्छी नहीं है। सनातन जैन धर्म की नीव अहिंसा पर खड़ी है उसमें हिंसा का प्रचार करना नितान्त भूल और अदूर दार्शता है।
मेरे मन्दिर मार्गीय साधु महात्माओं सदगृहस्थो! श्राप लोग मुखवस्त्रिका को मुख पर नहीं बांधकर हाथ में रखने में चहुत बड़ी गलती कर रहे है। असंख्य अदृश्य प्राणियों की हत्या का दायित्व अपने ऊपर ले रहे है । कोई शास्त्र इसमें सहमत नहीं है फिर श्राप क्यों नहीं मानते हैं।
मैने एक तरह से नहीं बल्कि हर तरह से सिद्ध कर दिया है कि मुखवत्रिका को मुख पर ही वांधना चाहिए। मैंने युक्ति वाट शब्दार्थ, और शास्त्रों के निर्विवाद वीर वचन से सावित किया ! श्रापके ग्रन्थों से सावित किया !! अन्यान्य धर्मावलम्बियों के ग्रन्था से सावित किया । और सावित किया स्वास्थ्य की दृष्टि से । अर्थात् श्रायुर्वट और डाक्टरी पुस्तकों से इसको लाभ दायक सावित किया है।
कई कुतर्कवादियो का कथन है कि, नाक वायु सेवन का मार्ग है उसमें कूड़ा छार श्रादि न प्रवेश करजापं इसलिए कु. दरत ने उसमें बाल उगाए है । इसी प्रकार हानि की संभा. वना होती तो प्रकृति मह की पाड़ के लिए भी जरूर कोई चमड़े की पट्टी अथवा वालो की रचना करती।
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मुखवस्त्रिका।
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इसका जवाव यह है कि, प्रकृति ने जो होठों की रचना को है यह मुंह का ढक्कन ही तो है। परन्तु कितनों ही की श्रादत मुंह खोलकर चलने की और मुंह से वायु ग्रहण करने की होती है ऐसी दशा में एक मुखवास्त्रिका ही दूपित वायु की रक्षा कर सकती है।
हम तार्किकों से यह पूछते है, कि कुदरत ने तो तुम्हारे शरीर का ढक्कन कुछ नहीं बनाया और तुम कपड़े क्यो पहन ते हो? पदरक्षी(पगरखी)इत्यादि की तुम्हें क्या आवश्यकता है?
मनुष्य मात्र का धर्म है कि प्रकृति के कामों में मदद करे। गन्दी हवा के परिहार्यार्थ सुगन्धित द्रव्यों का प्रयोग करते हैं। वर्षा शीत घाम की रक्षा के लिये नये २ प्रकार के मकानों
और वस्त्र प्रादि पदार्थों की मनुष्य रचना करते हैं। यह प्रकृति की मदद नहीं तो और क्या है ?
हम लोगों का कार्य समाज और जाति को उन्नति के मार्गों में प्रवृत्त करने और उनको धर्माचरण की शिक्षा देने का है। उसका पालन यथाशक्ति मैंने भी किया है अर्थात् एक उपयोगी विषय पाठकों को समझाने का प्रयत्न किया है । इसलिए कि उनको भूले हुए मार्ग में लाने का प्रयास किया है। परन्तु यदि इसके बदले में वे क्रोधित होकर मुझे गालियां देंगे तो मेरा क्या विगाड़ है उनकी क्षमता और उदारता प्रकट होगी
अब मैं अपने प्यारे पाठक पाठिकानों से प्रार्थना करता हूं कि मेरे शब्दों में कहीं कठोरता आगई हो तो आप लोग उन शब्दों के विनम्र और हितकारी भावों की ओर ही दृष्टिपात करते हुए मुझे क्षमा करदें।
ॐ शान्ति !! शान्ति !!! शान्ति
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॥ श्री॥
खुश खबर।
सर्व सजनों को विदित हो कि वैशाख सुदि ५ संवत् १९८६ को श्रीजैनोदय पुस्तक प्रकाशक समिति ने "श्रीजैनोदय प्रिंटिंग प्रेस" के नाम से एक प्रेस कायम किया है । इस प्रेस में हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, मराठी का काम बहुत अच्छा
और स्वच्छ तथा सुन्दर छापकर ठीक समय पर दिया जाता है। छपाई के चारज़ेज़ वगैरा भी किफायन से लिये जाते है। ____ अतःएव धर्म प्रेमी सज्जन, छपाई का काम भेजकर धर्म परिचय देने की कृपा करेंगे, ऐसी श्राशा है।
निवेदक:
मैनेजर श्रीजैनोदय प्रिंटिंग प्रेस,
रतलाम
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