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________________ __ [४] मुखवस्त्रिका । हे। ऐसी दशा में इसके अर्थ की इससे ज्यादह व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है। अव रही बात यह कि "क्या पदार्थ" सो यह वह पदार्थ है कि जो जैन साम्प्रदायिक साधु महात्माओं, मुनि महाराजा ओं, और श्रावक श्राविकाओं के मुंह पर वन्धती है। और जिस को मुंहपत्ति (मुखवस्निका ) वोलते हैं। श्रावक श्राविकाऍ इसको हर समय मुंहपर बंधी नहीं रखते है। सामायिक (एक प्रकारका श्रारम चिन्तवन) पौपध ( सारे दिन औ भर धर्म स्थानक में रहकर प्रभु स्मरग) के समय । परन्तु सन्त एवम् मुनियों के मुंहपर यह हर समय बंधी रहती है। यह मुखवास्त्रिका दया के प्रचुर धनकी साकेतिर, कीर्ति ध्वजा है। तपस्वियों के तप साम्राज्य का राज्य चिन्ह है। अहिंसा के अकुपार का फेन है । समदर्शिता एवम् साम्यवाद का शृंगार है। भावी जीवन के सुख सदन की ताली है। जीव हिंसा निवृत्ति का सुदृढ कपाट है। धर्म के श्राजा पत्र पर लगान की रजत मुद्रिका है। ममत्व मंजूपा के कपाट की यंत्रिका ( ताला) है, और मनुप्य कर्नव्य की महिमा है। श्राशा है पाठक इसका परिचय पा गए होंगे। मुख बस्त्रिका की आवश्यकता और लगाने का कारण । जो लोग प्राणी मात्र पर दया रखना चाहते हैं जिन्होंने दया पालन अपनी टन्द्रिय वृत्ति बनाली है। उन लोगों को प्ट और माम मारियों की रक्षा या नहीं करना चा.
SR No.010521
Book TitleSachitra Mukh Vastrika Nirnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarmuni
PublisherShivchand Nemichand Kotecha Shivpuri
Publication Year1931
Total Pages101
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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