________________
( ७ )
·
4
"
' इसी प्रकार येही गाथा " श्रोघनिर्युक्ति” की चूर्णि में भी उल्लेखित हैः- इस विधि के साथ मुखपत्ती वान्धने की प्रणाली आज भी कतिपय गच्छों में चली आती है | विक्रमीय स० १६३१-३२ तक तो करीव २ सभी गच्छ वासी यति, सम्वेगी लोग सुखपती मुख पर बाध कर व्याख्यानादि देते थे । वाद में शैने २ पुराने यति सम्वेगी मरते गए त्यों त्यों मुखपत्ती का बांधना भी यति सम्वेगियों में कम होता गया । और ज्यों ज्यों नई रोशनी के यति सम्वेगी पैदा होते गए,
त्यो प्राचीन प्रणाली की निषेधना करते गए । वैसे ही इन लोगों में मुखपत्ती बाधना तो दर किनारे रहा। किन्तु वाज २ यति सम्वेगियों ने पास में रखना भी छोड़ दिया । हमारे मूर्त्ति पूजक भाईयों के गुरुवर्य 'शतपदी' के लेखक उक्त ग्रन्थ के पृ० ९५६ पर क्या लिखते है उक्तंच
" मोपती विना मोंमां मछर, मखी, पाणीना विंदुके धूल पढ़े छे, देशना देतां के छींकतां मोना गरम वायु बड़े बाहरना वायुनी विराधना थाय छे । तथा आपणी थूको ऊड़ीने बीजाने स्पर्शेछे”देखिये! मुख वस्त्रिका मुख पर न बांधने वालों के मुख में हड्डी, विष्टा श्रादि अशुद्ध वस्तु पर बैठी हुई मक्षिकादि उड़ कर मुंह में घुस जाती है । जहा पर पानी के फुलारे छूट रहे हों और उस के नजदीक होकर जाने का काम पड़े तथा वर्षात के दिनों में क पानी की वृन्दे मुँह में गिरजाती है । देशना देते या छींकते समय मुंह की गरम वायु द्वारा बाह्य सचित वायु कायिक जीवों की विराधना होती है । तथा अपने मुह की धूक उछल कर शास्त्र और गुरु श्रादि के ऊपर पड़ने से महान् श्राशातना लगती है । यदि हमारे मूर्ति पूजक बन्धु साक्षरी पने का दावा रखते हैं तो अपने पूर्वजों के उक्त लेख पर विचार करें और मुख- वस्त्रिका मुख पर बांध के सच्ची सनातनीय जैन प्रणाली
1
1