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क्योकि एक ही समय में दोनो तरफ उपयोग रह सकता नहीं ! श्रव क्या करना चाहिये, मुखपत्ती में धागा लगा कर मुंह पर वान्धना तो निषेध कर चुके हैं और उसी विधि को पुन. अंगी कार करेंगे तो जो धागा लगाकर मुख पर वांधने वाले हैं वे अपनी बड़ी भारी भद्द उडावगे। ऐसा विचार कर, एक और नवीन योजना उन लोगोंने यह निकाली कि श्रष्ट पड़ वाली मुंहपत्ती के ऊपर के दोना कोन पर कपड़े की कसे लगाकर, नाथ वावों की तरह दोनों कानों को वीच में से फड़वा कर उन छेद्रों में से कसे निकाल के कानों के पीछ गाठ लगाकर वांधने लगे। यह प्रणाली करीब विक्रमीय सं १९२३-२४ तक तो चलती रही, किन्तु कान फड़वाने में बहुत कष्ट होने के कारण यह प्रणाली थोड़े ही काल में प्रलय हो गई।
कुछ दिनों तक कान के नीचे की लो जो गृहवास की छेदन की हुई उस में नीमश्रादि की सीक डाल के छेदों को कस डालने योग बनाकर उन के अन्दर से कसे निकाल के कान पीछे गांठ लगाकर बान्धने लगे । यह रिवाज भी विशेष काल नहीं चला। थोड़े ही काल में सूर्य की भाति श्रस्त होगया । वाद कुछ दिनों तक दोनों कसे कानों के लपेट कर मुखपत्ती मुख पर बांधने लगे । कतिपय यति लोग कसे को कान ऊपर से गुद्दी के पीछे लेजाकर गाठ लगा के वांधने लगे। कुछ यति और सम्वेगी लोक मुखपत्ती को त्रिकोनी कर नाक और मुंह दोनों के ऊपर से लेकर गुद्दी पीछे दोनों कोने को लेजाकर गांठ लगा कर वाघने लगे । मुखपत्ती की ऐसी परिस्थिति में ही निम्न लिखित गाथा का प्रतिपादन हुवा हो ऐसा अनुमान प्रमान से मात होताहै। उक्तंच-" सम्पाइम रयरेणु, परमज्झण ठावयइ मुहपोति ।। नासं मुहं च बन्धह, तीएव सहिं पमझतो ॥"
श्रीप्रकर रत्नाकर भा०३ पं० १४२