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________________ [५२] मुखवस्त्रिका । - - मरना अपने अन्तिम जीवन को क्षय करना है। परन्तु वायु से वंचित रहना तो थोड़े ही समय में तमाम काम (जीवन ) खतम कर देता है। अच्छा स्वास्थ्य शुद्ध हवा पर उतना ही अधिक निर्भर है, जितनी अधिक गन्दगियों से वीमारियां पैदा होती है। अर्थात जितनी ज्यादह वायु में खराविया रहती है, उतनी अधिक वीमारियां भी पैदा होती है । इसलिये मुह पर वस्त्र धारण करना इन तीन सिद्धान्तों से पुष्ट होता है । प्राकृतिक, जैन और वेद्यक। (१) प्रकृति प्राणी मात्र को बीमारियों से रक्षा करना सिखाती है। जैसे-यदि हम कहीं एक सड़ती हुई लाश के पास से होकर गुजरे तो एक दम अपना दिमाग अपने हाथ को जेवमें से रूमाल निकालने के लिये तथा उसको नाक से श्राड़ा लगाने के लिये प्रेरित करता है । ताकि दुर्गन्ध हवा स्वास्थ्य को न विगाड़ दे। (२) मुंहपत्ति को धारण करने के विषय में जैन शास्त्रों में परिपूर्ण रूप से व्याख्या तथा पुष्टि की गई है। (३ वैद्यक शास्त्र भी हमको यही सिखाता है कि उपरोक्त वायु के आश्रित रेणु तथा दुर्गन्ध से जो वीमारियां पैदा होती है, उनसे अपने आपको वचाओ। कतिपय मित्र यह तर्क करेंगे कि मुंहपत्ति को नाक पर क्यो नहीं लगाना चाहिये । क्योकि नाक भी तो वायु सेवन का द्वार है। उत्तर में इतना ही लिखना यथेष्ट है कि प्रकृति ने नाक में बाल रखे हैं। जिनसे बाहरी खराबियां रुक जाती है "दुनियां के धर्म" अर्थात दुनिया की मजहवी किताब जो कि "जॉनमडीक पल एल डी १६६२ में लिखित पुस्तक के
SR No.010521
Book TitleSachitra Mukh Vastrika Nirnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarmuni
PublisherShivchand Nemichand Kotecha Shivpuri
Publication Year1931
Total Pages101
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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