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________________ [३६] मुखवत्रिका। - - -- - झाड वुहार के आगे पाव धरते हैं! कही सांस लेने में कोई कीट पतंग मुँह में न चला जाये इसलिए वे अपने मुँहको कपड़े से ढांके रहते हैं " शास्त्रीय एवम् अनेक ग्रन्थों के प्रमाण देने में हमने कोई बात उठा नहीं रखी परन्तु अव हम प्राचीन चित्रों के जो व्लाक चित्र तैयार कराए हैं व पाठकों के आगे रखना चाहते हैं। चित्रो द्वारा प्रमाण पाठकों को यह बतलाने की कोई आवश्यकता नहीं है कि, संसार में चित्र कितने मूल्य की वस्तु है। पुरातत्व वेत्ता ओं को चित्रों एवम् शिलालेखों ने ही प्राचीन इतिहास का विशेष पता दिया है। इतिहास को अंधकार से प्रकाश में लाने के लिए चित्रों ने जितनी मदद की है उतनी किसीने नहीं। यदि प्राचीन चित्र उपलब्ध न हुए होते तो यह पता कहां से चलता, कि, किस समय कैसा वेय था और किस धर्म के लोग किस तरह का पहनाव रखते थे । और यह चित्र किस समय का है इत्यादि। हमारे कथन का यह भाव है कि, चित्र सामाजिक परि स्थिति के अनुकूल बनते है । अर्थात् जिस समय जैसी वेप भूपा समाज में होती है उसके अनुकूल ही चित्र बनते हैं। और इसीलिए समय और इतिहास की खोज में लोग चित्रों को वहुत प्रमाणिक मानते हैं। हम भी मन्दिर मार्गीय साधु एवम् श्रावका और अन्य पाठको के सम्मुख अाज वैसे ही प्राचीन चित्र रखरहे हैं जो
SR No.010521
Book TitleSachitra Mukh Vastrika Nirnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarmuni
PublisherShivchand Nemichand Kotecha Shivpuri
Publication Year1931
Total Pages101
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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