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( २ ) कि व्याख्यानादि देते समय, अवश्य मुस-वस्त्रिका मुख पर बांध के देते है। यह एक सदा सर्वदा मुख-वस्त्रिका मुख पर बांधी जाने वाली प्राचीन प्रणाली की सबूती के लिये ही हमारे मूत्ति पूजक समाज के नेताओं ने उसका कुछ अंश में अन करण करते हुए अद्यावधि पर्यन्त चले श्रा रहे है। इस प्रा. चीन प्रणाली को संयम धर्म का साधन समझ के ही पग्यास श्री धर्मविजयजी, विजयनीतिजीसूरि, विजयसिद्धिजी सूरि श्रादि महानुभाव व्याख्यान देते समय मरसपत्ती मुस पर बांध के देते थे। सरतर गच्छी कृपाचन्द्रसूरि को मुख पर मुख वास्त्रका बांधकर व्याख्यान देते सं०१६७८के साल रतलाम के चातुर्मास में मैने स्वय श्रांख से देखा है । इसी प्रकार अंचलगच्छ वासी यति लोग व्याख्यान देत समय मुख पर मुख वस्त्रिका बांधते हैं। तथा पापचलगच्छ वानी धावक लोक प्रतिक्रमण करते समय मुरज परित्रका मुग पर वाघ के करते हैं । इस पर से हमारे कतिपय जैन वधु, जो कि प्राचीन प्रणाली को आधुनिक बतला रहे हैं। वे श्रव विचार कर सकते है, कि यदि मुग्य-चरित्रका वांधने की प्रणाली अर्या चीन होती तो, उक्त महानुभाव कुछ समय के लिये भी कदापि अनुकरण नहीं करने । किन्तु प्राचीन होने ही के कार गग अद्यावधि पर्यन्त इसका अनुकरण करते हुए चले आ रहे है। पूर्व काल में सबी गच्छवामी यति लोग व्याग्यान देने तय मुग पर मुग्य-वस्त्रिका बाघ के देते थे । उस विपय में। 'सन्यार्थप्रकाश के रचयिता स्वामी दयानन्दजी हादशम ' मृन्नास फी १०-१५०पर लिसंत है, कि " जती श्रादि भी जब पुस्तक बांचते हैं तभी मुग्न पर पट्टी बाधते है। इस म्वामीजी के प्रमाण से निपिंवाद सिद्ध है, कि पूर्व काल में गग्यान के समय मुग पे मुन-पत्रिका संघ के व्यायान