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भूमिका
-rootooप्रिय पाठकों ! श्राज कल हमारे जैन समाज के कतिपय सज्जन-गण इस प्रकार कथन करते हैं, कि जैन मुनियों के मुख पर-वस्त्रिका बांधने का रिवाज यह आधुनिक समय से चला है। इस प्रकार हमारे उन बंधुओंका कथन करना सर्वथा मिथ्या है। क्योंकि मुख पर मुख-वस्त्रिका बांधने का रिवाज अाधुनिक समय से नहीं, किन्तु सनातन से चला आता है। हां हाथ में मुख-वस्त्रिका धारण करने वाले रिवाज के लिये प्राधुनिक समय से चला ऐसा कथन करें, तो उनका कथन अक्षरशःसत्य हो सकता है ! क्योंकि यह रिवाज द्वादश वर्षीय दुष्काल के जमाने में सुधा पीड़ित कंगले लोक श्राहारादि छिनने लग पड़े, तब इस दुसह्य-सुधा परिषद से पीड़ित होते हुए कतिपय उदरार्थी, मुनि नामधारियों ने अहंत प्रभू प्रदशित भेप में अतीव कप्ट समझ कर मुख से मुख-वत्रिका खोल के हाथ में धारण की। वहीं से यह नूतन (नवीन)रिवाज प्रादुर्भूत हुआ, आगे से नहीं ! यदि इसके लिये आधुनिक कथन करते तो हमारे भाइयों का कहना युक्ति युक्त हो सकता। किन्तु शास्त्र विहित मुख-चस्त्रिका मुख पर वांधने की सच्ची सनातनीय जैन प्रणाली को अाधुनिक, समय से प्रादुर्भूत होने वाली नवीन प्रणाली को प्राचीन दिखलाना यह उन महानुभावों की अनभिज्ञता नहीं तो और क्या ? जो साक्षरी पंडित हैं वे तो मुख पर वांधने वाली ही प्रणाली को प्राचीन समझ ते हैं। और शास्त्रोक्त विधि विहित मुख-पत्रिका को मुख पर वांध के धर्मानुष्टानादि क्रियाओं का पालनभी करते हैं। नवीन प्रणाली के प्रचारको में इतना तो अवश्य देखने में आता हैं,