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________________ मुखवस्त्रिका। [५७] इसका जवाव यह है कि, प्रकृति ने जो होठों की रचना को है यह मुह का ढक्कन ही तो है। परन्तु कितनों ही की श्रादत मुंह खोलकर चलने की और मुंह से वायु ग्रहण करने की होती है ऐसी दशा में एक मुखवस्त्रिका ही दूपित वायु की रक्षा कर सकती है। ___ हम तार्किकों से यह पूछते हैं, कि कुदरत ने तो तुम्हारे शरीर का ढक्कन कुछ नहीं बनाया और तुम कपड़े क्यों पहन ते हो? पदरक्षो(पगरखी)इत्यादि की तुम्हें क्या आवश्यकता है? मनुष्य मात्र का धर्म है कि प्रकृति के कामों में मदद करे। गन्दी हवा के परिहार्यार्थ सुगन्धित द्रव्यों का प्रयोग करते हैं । वर्षा शीत घाम की रक्षा के लिये नये २ प्रकार के मकानों और वस्त्र आदि पदार्थों की मनुष्य रचना करते है। यह प्रकृति की मदद नहीं तो और क्या है ? । हम लोगों का कार्य समाज और जाति को उन्नति के मार्गों में प्रवृत्त करने और उनको धर्माचरण की शिक्षा देने का है। उसका पालन यथाशक्ति मैंने भी किया है अर्थात् एक उपयोगी विषय पाठकों को समझाने का प्रयत्न किया है । इसलिए कि उनको भूले हुए मार्ग में लाने का प्रयास किया है। परन्तु यदि इसके बदले में वे क्रोधित होकर मुझे गालियां देंगे तो मेरा क्या विगाड़ है उनकी क्षमता और उदारता प्रकट होगी अव में अपने प्यारे पाठक पाठिकानों से प्रार्थना करता हूं कि मेरे शब्दों में कहीं कठोरता आगई हो तो श्राप लोग उन शब्दों के विनम्र और हितकारी भावों की ओर ही दृष्टिपात करते हुए मुझे क्षमा करदें। ॐ! शान्ति !! शान्ति !!! शान्ति
SR No.010521
Book TitleSachitra Mukh Vastrika Nirnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarmuni
PublisherShivchand Nemichand Kotecha Shivpuri
Publication Year1931
Total Pages101
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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