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________________ धर्म के सभी सम्प्रदाय में इस विषय पर तो किसी भी व्यक्ति का मत भेद नहीं है, कि प्रमाद (प्रमत्तयोग) के कारण ही हिसा होती है। और जहां २ हिंसा है, वहाँ २ पाप कमा का वन्ध और संसार वृद्धि भी है। पाप वृद्धि और संसार भ्रमण का खास कारण प्रमत्तयोग ही को मानागया है। इसी कारण को मुख्यता में ग्रहण कर श्रीवीर परमात्माने मुमत मुनियों को, इस प्रमाद पिशाच से बचाने के लिये ही मुख वत्रिका की प्रतिपादना की, वह भी प्रतिपादना मुख्य एक अंग को ग्रहण कर की कि, उस अझ के व्यतिरिक्त अन्य अंग पर धारण कर ही नहीं सकते। मुख पर वान्धने की आज्ञा भी उसी मुखपत्ती शब्द के अन्तर गत रही हुई है। कृपया निम्न लिखित मुखपत्ती शब्द की परिभापा को ध्यान देकर पढ़िये ! "सुख पोतते वन्धते सततं अनेन सा मुखपोतिका " अर्थात् जिस करके सतत (निरन्तर ) मुख को चान्धा जाए, उसे मुखपोतिका कहते है । सतत शब्द ग्रहण करने का खास कारण यह है, कि मुनि को आहारादि याचना करते समय च शिप्यादिकों को सूत्रादि पठन पाठन करने आदि के लिये श्राज्ञा देने को हर वक्त बोलना पड़ता है । एवं शिप्यों को वाचनादि देने का तथा श्रावक, श्राविकाओं को त्याग, नियम करवाने अथवा मंगलिक उपदेश श्रादेश व्याख्यानादि देने का काम पड़ता है। उस समय मुख की यत्ला की तरफ ध्यान रखें या, मंगलिक श्रादि सुनाने की तरफ एक समय में दोनों ओर उपयोग रह सकता नहीं । परमात्माने एक समय में एक ही उपयोग फरमाया है। जिस समय मुहकी यत्ना की तरफ ध्यान रहेगा, उस समय व्याश्यानादि की ओर ध्यान नहीं रहेगा और जव व्याख्यानादि की तरफ स्याल रहेगा उस
SR No.010521
Book TitleSachitra Mukh Vastrika Nirnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarmuni
PublisherShivchand Nemichand Kotecha Shivpuri
Publication Year1931
Total Pages101
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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